SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक योनि से मरकर या उद्वर्तन कर जीव जब अन्य योनि में जाता है तब गन्तव्य स्थान तक पहुंचने में कम से कम एक समय, अधिक से अधिक चार समय का कालमान है। उतने समय भी सलेशी होता है। अंतराल गति में द्रव्य लेश्या के नये पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता किन्तु मृत्यु या च्यवन के समय जो लेश्या होती है उसी के पुद्गल साथ रहते हैं । मरण काल में होने वाली लेश्या की विविध परिणति की अपेक्षा से बालमरण, पंडितमरण की विविक्षा है । लेश्या जन्मान्तर का कारण है। आत्मा और कर्म को जोड़ने में लेश्या सेतु के रूप में काम करती है । पूज्यपाद” ने कषायों के उदय से अनुरंजित मन-वचन-काया की प्रवृत्ति को लेश्या कहा है। जिसके द्वारा २ जीव कर्मों से लिप्त होता है उसका नाम लेश्या है। जीव और लेश्या का सनातन सम्बन्ध है । लेश्या का अभिवचन हैअध्यवसाय'३, अन्तःकरण वृत्ति, प्रकाश, सुख५५, उजियाला, वर्ण आदि। ये अर्थ सूचक पर्याय हैं। लेश्या के दो प्रकार हैं- द्रव्य-भाव । शरीर का वर्ण और आणविक आभा को द्रव्य लेश्या कहा जाता है। यह पौद्गलिक पर्यावरण है। विचार भाव लेश्या है। कषाय६ से युक्त योग की प्रवृत्ति भाव लेश्या है। गोम्पटसार" में मोहनीय कर्म के उदय, क्षयोपशम, उपशम क्षय से उत्पन्न जीव स्पंदन (अध्यवसाय) को भाव लेश्या माना है। द्रव्य लेश्या के ६ विभाग हैं- कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म, शुक्ल । छह लेश्याओं में प्रथम तीन गंध की अपेक्षा दुर्गंधयुक्त, रस में अमनोज्ञ, स्पर्श से शीत-रुक्ष, वर्ण से अविशुद्ध है। शेष तीन सुगंध, मनोज्ञ उष्णस्निग्ध, विशुद्ध हैं। प्रथम त्रिक को अप्रशस्त और शेष त्रिक को प्रशस्त कहा जाता है। प्रशस्त-अप्रशस्त लेश्याओं से जीव की मानसिक स्थिति तथा आचरण कैसा होता है इसका सुव्यवस्थित चित्रण उत्तराध्ययन के चौतीसवें अध्याय से स्पष्ट हो जाता है। कृष्ण आदि लेश्याओं के जैसे पुद्गल होते हैं तदनुरूप मानसिक स्थिति निर्मित हो जाती है। मानसिक स्थिति का पौद्गलिक लेश्याओं पर प्रभाव पड़ता है। और वे लेश्याएं मानसिक अवस्था को प्रभावित करती हैं। कषाय की मंदता से अध्यवसाय की शुद्धि और अध्यवसाय शुद्धि लेश्या शुद्धि का कारण है। •१६४० जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy