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________________ जैसे-जैसे दार्शनिक क्षेत्र में विविध दार्शनिक अवधारणाएं एवं व्याख्याएं अस्तित्व में आईं, वैसे-वैसे जैनों ने कर्म की समीक्षा की और अपने कर्मसिद्धांत को तार्किक बनाने का प्रयत्न किया। जैनाचार्यों ने कर्म-सिद्धांत पर आये आक्षेपों के निराकरण का भी प्रयास किया है ताकि जैन कर्म-सिद्धांत को तार्किक आधार दिया जा सके। इस सम्बन्ध में जैन आचार्यों की विशेषता यह रही. उन्होंने कर्म-सिद्धांत के प्रस्तुतीकरण में तथा आक्षेपों के निराकरण के लिये एकान्तिक दृष्टिकोण न अपनाकर अनेकांतिक दृष्टि का प्रयोग किया है। क्लोनिंग तथा कर्म सिद्धांत विज्ञान जगत में क्लोनिंग की अत्यधिक चर्चा है। डौली के रूप में भेड़ का क्लोनिंग किया गया। प्रश्न उठता है, क्या क्लोनिंग की प्रक्रिया कर्मसिद्धांत के लिये चुनौती नहीं है ? क्लोनिंग में जीव पैदा करने के लिये नर और मादा दोनों का होना आवश्यक नहीं ? क्या जैन दर्शन में वर्णित गर्भ-धारण की प्रक्रिया गलत है? क्लोनिंग की मान्यता है शरीर की रचना, आकृति, शक्ल जैसी चाहें वैसी निर्मित की जाती है तो नाम-कर्म की उपयोगिता क्या होगी? क्या कर्मों का स्वभाव, स्थिति, अनुभाग आदि में अंतर नहीं पड़ जायेगा ? ऐसे अनेक प्रश्न खड़े होते हैं जिनका उत्तर हमें कर्म-सिद्धांत से ही पाना है। उससे पहले 'क्लोन' क्या है? समझ लेना जरूरी है। किसी जीव विशेष का जेनेटिकल प्रतिरूप पैदा होना 'क्लोनिंग' कहलाता है। 'क्लोन'७२ उस जीव का एक कॉर्बन कॉपी होता है। 'जन्म की सामान्य प्रक्रिया में भ्रूण का निर्माण नर के शुक्राणु (Sperm cell) तथा मादा के अण्डाणु (Egg cell) के संगठन (Fussion) से होता है। इस भ्रूण कोशिका (Cell) के केन्द्रक (Nucleus) में गुणसूत्र (Chromosome) पाये जाते हैं। उनमें कुछ गुणसूत्र मादा के, कुछ नर के होते हैं। इस प्रक्रिया को लैंगिक (Sexual) प्रजनन कहा जाता है। क्लोनिंग की प्रक्रिया इससे भिन्न है। यहां भ्रूण की कोशिका केन्द्रक में सारे गुणसूत्र किसी एक के होते हैं। चाहे नर के हों या मादा के। दोनों के संयुक्त गुणसूत्र की अपेक्षा नहीं। जिस जीव का 'क्लोन' तैयार करना है उसी जीव के सारे गुणसूत्र 'क्लोन' की कोशिका केन्द्र में होते हैं। यह अलैंगिक (Asexual) प्रजनन की प्रक्रिया है। जिससे 'क्लोन' तैयार होता है उस प्रक्रिया को 'क्लोनिंग' कहते हैं। कर्मवाद, उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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