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________________ कर्म के उद्भव का जहां तक प्रश्न है, जैन आगम या ग्रन्थों के तलस्पर्शी अध्ययन का निष्कर्ष है-“सर्वप्रथम वैयक्तिक विषमता के कारणों की खोज के फलस्वरूप ही कर्म-सिद्धान्त अस्तित्व में आया।" विश्व के रंगमंच पर विचित्र अभिनय है। इससे अनेक चिन्तकों के मस्तिष्क पर दस्तक हुई कि यह वैषम्य क्यों ? किस अदृश्य शक्ति की लीला है ? विभिन्न लोगों ने विभिन्न कारण प्रस्तुत किये किन्तु मूल कारण की खोज करें तो कर्म के अतिरिक्त जागतिक वैचित्र्य का और कोई युक्ति पुरस्सर कारण ज्ञात नहीं होता। जैन दर्शन का कर्मवाद यथार्थ है। आचारांग सूत्र में महावीर ने कहा-“कर्म से उपाधि का जन्म होता है"।६२ वैदिक ऋषियों को इस वैषम्य की अनुभूति नहीं थी-ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु विविधता का कारण अन्तरात्मा में ढूंढ़ने की अपेक्षा उसे बाह्य तत्त्व में मान कर ही संतोष कर लिया। इससे लगता है कि उनका रुझान इस ओर अधिक नहीं था। कुछ विचारकों ने काल को मूल कारण माना तो किसी ने स्वभाव को। किसी ने नियति को तो किसी ने यदृच्छा तथा ईश्वर को। कर्म का उल्लेख वहां अधिक नहीं मिलता । किन्तु उक्त मान्यताएं भी तर्कसंगत नहीं लगती।। यदि काल को ही सुख-दुःखानुभूति का कारण मानें तो एक ही समय में सुख-दुःख की भिन्न अनुभूति देखने को नहीं मिलती। तथा अचेतन काल सुखदुःखात्मक अनुभूति का निमित्त कैसे हो सकता है ? इस प्रकार अन्य कारणों के सम्बन्ध में भी यही उलझन है इसलिये उक्त मान्यताएं सही प्रतीत नहीं होती। इन सब वादों का निरसन करने हेतु मानो कर्मवाद अस्तित्व में आया। कर्म सिद्धांत के उद्भव के पीछे पंडित सुखलालजी ने तीन हेतुओं का उल्लेख किया है १. वैदिक धर्म की ईश्वर सम्बन्धी मान्यता का निरसन। २. बौद्ध धर्म के एकान्त क्षणिकवाद का निरसन। ३. आत्मा को जड़-तत्त्व से भिन्न चेतन तत्त्व स्थापित करना। वेदों६३ और उपनिषेदों६४ के आधार पर लोकधारणा इस रूप में पुष्ट हो चुकी थी कि अच्छे-बुरे कर्मों का फल ईश्वर द्वारा मिलता है। ईश्वर नियामक है।६५ न्याय दर्शन का मन्तव्य है। महाभारत६६ और गीता६७ में भी इसकी पुष्टि मिलती है। कर्मवाद, उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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