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________________ मृत्तिका की तरह उसके रूपादि गुण भी सहायक होते हैं, किन्तु उन गुणों को घट का कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि वे कार्य के साथ अन्यथा सिद्ध हैं। उन्हें अवान्तर सहयोगी भी कहा जाता है। कारण नहीं। कारण वही होता है जिसके बिना कार्य निष्पन्न न हो। वैशेषिक दर्शन में अन्य तीन कारणों का और उल्लेख है-समवायी कारण, असमवायी कारण, निमित्त कारण। तन्तु पट का समवायी कारण है। तन्तुओं का सहयोग असमवायी कारण है। जुलाहा, तुरी आदि उसके निमित्त कारण हैं।६० समवायी कारण का पर्याय उपादान कारण है। भारतीय साहित्य में कारण-कार्यवाद के संदर्भ में अनेक मतवाद प्रचलित हैं। असत् कारणवाद, सत् कारणवाद, असत् कार्यवाद, सत्कार्यवाद, सदसत् कार्यवाद आदि। अतः प्राचीनकाल से ही कार्य-कारण पर विमर्शणा होती रही है। कर्म में भी कार्य-कारणवाद सम्बन्ध हैं। __यदि निरपेक्ष रूप से पुरुषार्थ को ही महत्त्व दिया जाये तो कर्म विपाक की नियत अवस्था के अभाव में कर्म और उसके फल के बीच में कोई सुनिश्चित क्रम नहीं बन पाता तथा एकमात्र नियति को सत्य स्वीकार किया जाये तो व्यक्ति के आत्म-स्वातन्त्र्य पर कुठाराघात है। अतः कर्म सिद्धान्त न तो एकान्ततः नियतिवादी है न पुरुषार्थवादी, बल्कि कर्म-सिद्धांत में दोनों का विशिष्ट योगदान है। कर्मवाद का इतिहास भारत अनेक दर्शनों की जन्मस्थली है। प्रत्येक दर्शन और दार्शनिक अवधारणा की विकास यात्रा के पीछे एक पृष्ठभूमि है। केन्द्रीय सिद्धांत है। भारतीय दर्शनों में नामान्तर रूप से भी कर्मवाद की विवेचना का प्राधान्य है। किन्तु कर्मवाद की विशिष्ट व्याख्या-विश्लेषण और निरूपण शैली का श्रेय जैन परम्परा को है। जैन आचार्यों की मौलिक देन है। इसका दार्शनिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अनुशीलन अति महत्त्वपूर्ण है। इस संदर्भ में प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी के विचार स्पष्ट हैं। "वैदिक तथा बौद्ध साहित्य में कर्म सम्बन्धी उल्लेख है किन्तु उसका कोई मौलिक ग्रन्थ दृष्टिपथ में नहीं आता, जबकि जैन दर्शन में कर्म सम्बन्धी विचार व्यवस्थित और विस्तार से हैं।"६१ .१२२ जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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