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________________ मृत्यु के उपरांत आत्मा की स्थिति क्या होगी ? उसका अस्तित्त्व रहेगा या नहीं ? यह जिज्ञासा पुनर्जन्म की अवधारणा की ओर ले जाती है। कर्मवाद और पुनर्जन्म का सिद्धांत परस्पराश्रित है और जैन दर्शन की मौलिक देन है। वैज्ञानिक जगत में आज प्रोटोप्लाज्मा की चर्चा है। इससे आत्मा की अमरता एवं पुनर्जन्म दोनों की पुष्टि होती है। परामनोविज्ञान ने पुनर्जन्म पर बहुत अन्वेषण किया है। पुनर्जन्म की सिद्धि के लिये चार तथ्य भी प्रस्तुत किये हैं१. किसी-किसी को मृत्यु होने से पूर्व अथवा भविष्य में घटित होने वाली आकस्मिक घटना का पूर्वाभास हो जाता है। २. भविष्य के ज्ञान की तरह अतीत का ज्ञान हो सकता है। ३. बिना किसी माध्यम के भी प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है। ४. बिना किसी माध्यम के एक व्यक्ति हजारों कोस दूर बैठे हुए व्यक्ति को अपने विचार संप्रेषित कर सकता है। ___ इन तथ्यों के आधार पर उन लोगों की धारणा परिष्कृत हुई जो यह मानते थे कि मरणोपरांत जीवन का अस्तित्त्व नहीं है। भारतीय महाद्वीप में पुनर्जन्म का सिद्धांत वर्तमान सभ्यता के युग से भी प्रागैतिहासिक है। आर्यों के आगमन से पूर्व भारत के मूल निवासियों में यह विश्वास था कि मनुष्य मरकर वनस्पति आदि अन्य योनियों में जन्म लेता है, अन्य योनिस्थ जीव मनुष्य आदि शरीर प्राप्त कर सकते हैं। नवागत आर्यों ने इसका अनुसरण कर अपने धर्मग्रन्थों में पुनर्जन्म और उसके कारण कर्मसिद्धांत को स्थान दिया। __ पदार्थ की तरह आत्मा भी परिवर्तनशील है। यह एक ध्रुव सत्य है कि सत से असत और असत से सत की उत्पत्ति नहीं होती। परिवर्तन को जोड़ने वाली कड़ी आत्मा है। वह अन्वयी है। पूर्वजन्म और उत्तरजन्म-दोनों उसकी अवस्थाएं हैं। वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में प्रयोगों के पश्चात इस निर्णय पर पहुंचे कि मरण के पश्चात् कोई ऐसा सूक्ष्म तत्त्व रह जाता है जो इच्छानुसार पुनः किसी भी शरीर में प्रवेश कर नये शरीर को जन्म दे सकता है। - पन्द्रह
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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