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________________ बौद्धों की तरह यदि मानें- 'क्रिया है, कर्ता नहीं, मार्ग है, चलने वाला नहीं, दुःख है, दुःखित नहीं, परिनिर्वाण है, परिनिवृत्त नहीं।” यह न तो न्यायसंगत है, न किसी के अनुभवगम्य भी । अतः वस्तु व्रात नित्यानित्य है । नित्यअनित्य, वाच्य-अवाच्य, भेद - अभेद-ये दोनों प्रतीतियां वास्तविक हैं। वास्तविकता परस्पर सापेक्ष है। गौतम के प्रश्न को समाहित करते हुए महावीर कहते हैं- गौतम! जीव शाश्वत भी है, अशाश्वत भी । सामान्यतया विचार करने पर लगता है एक ही वस्तु में विरोधी धर्मों का सहवस्थान कैसे ? वस्तु या तो शाश्वत होती है या अशाश्वत । अनेकांत के आलोक में समाधान सहज प्राप्त है। आत्मा थी, है और रहेगी। उसके असंख्यात प्रदेशात्मक स्वरूप में किसी प्रकार का रूपान्तरण संभव नहीं। इसलिये शाश्वत है। अशाश्वतता की सूचक है विभिन्न अवस्थाएं । देव, नारक, मनुष्य आदि योनियों में पर्याय - परिवर्तन होता रहता है। जैन विचारकों ने विभज्यवादी शैली से विरोधाभास की समस्या का निराकरण किया है। ३ आत्मा त्रैकालिक है। परिणामी है। उत्तराध्ययन में आत्मा को अमूर्त एवं नित्य कहा है।` भगवती में अविनाशी, अक्षय, ध्रुव और नित्य होने का उल्लेख है । किन्तु वहां नित्यता का अर्थ परिणामी नित्य ही है। आत्मा अपने परिणामी स्वरूप को अक्षुण्ण रखती हुई विभिन्न अवस्थाओं में परिणत होने वाली, कर्ता और भोक्ता है । स्वदेह - परिमाण है, न अणु, न विभु । प्रत्येक आत्मा की चेतना अनंत होती है । किन्तु चेतना का विकास सबमें समान नहीं होता।' चैतन्य - विकास के तारत्म्य का निमित्त है । " आत्मा में अनंत शक्ति (वीर्य) है। उसे लब्धि वीर्य कहा जाता है। यह शुद्ध आत्मिक सामर्थ्य है। बाह्य जगत के साथ इसका सीधा सम्बन्ध नहीं । सम्बन्ध का माध्यम हैशरीर। आत्मा और शरीर की संयुक्त अवस्था में जो सामर्थ्य आविर्भूत होता है, वह करण वीर्य (क्रियात्मक शक्ति) है। इससे चैतन्य प्रेरित क्रियात्मक कम्पन १. विशुद्धिमग्ग, बौद्धदर्शन, अन्य भारतीय दर्शन, प्रथम भाग, पृ. ५११ से उद्धृत २. उत्तराध्ययन १४ / १९ ३. भगवती ९/६/३/८७ ४. ठाणं- २ ५. भगवती ७/८ ग्यारह
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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