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________________ फतेहपुर की एक श्राविका श्रीमती रतनी देवी दीक्षा लेना चाहती थी, पर परिवारवालों ने दीक्षा की आज्ञा नहीं दी। श्राविका ने संकल्प कर लिया कि आज्ञा प्राप्त किए बिना भोजन नहीं करना है। इधर बहन का संकल्प और घरवालों की पकड़, उधर परिवार की आज्ञा बिना दीक्षा न देने की कालूगणी की नीति। तीनों अपने प्रण में पक्के रहे। दृढ़धर्मिणी श्राविका ने अपने प्रण की संपूर्ति में प्राणों. की बाजी लगा दी। प्रस्तुत गीत के अन्त में रिखिराम-लच्छीराम के प्रसंग में कालूगणी द्वारा की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही का ऐतिहासिक प्रसंग भी उल्लेखनीय है । आचार्य सब कुछ सहन कर सकते हैं, पर अनुशासन का भंग बर्दाश्त नहीं कर सकते। क्योंकि संघ की दीर्घजीविता का मूलभूत आधार वही है। पन्द्रहवें गीत की ये प्रमुख-प्रमुख घटनाएं हैं। सोलहवां गीत उल्लास का अन्तिम गीत है। इसमें वि.सं. १६७६ से १९८६ तक दस वर्षों में हुई दीक्षाओं का लेखा जोखा है। धन मुनि और चन्दनमुनि (सिरसा) की बड़ी दीक्षा छह महीनों के बाद हुई। क्योंकि उनके संसारपक्षीय पिता मुनि केवलचन्दजी की दीक्षा उनके बाद हुई थी। पिता को दीक्षापर्याय में बड़ा रखने के लिए जैनशास्त्र में सम्मत यह प्रयोग किया गया। दीक्षा का वर्णन जितना संक्षिप्त है, उतना ही रोचक है। दस वर्ष की दीक्षाओं का विवेचन एक साथ प्रस्तुत करने पर भी पद्य-रचना में उसे इतने व्यवस्थित ढंग से पिरोया गया है कि पढ़ने में कहीं भी अरुचि नहीं होती। प्रत्येक उल्लास के अन्त में संस्कृत श्लोकों के साथ उस उल्लास में विवेचन विषय को छह भागों में विभक्त किया गया है। यह विभक्तीकरण भी नई शैली में और संस्कृत गद्य में निबद्ध है। अपने जीवन में नए-नए प्रयोग करते रहना आचार्यश्री तुलसी को अभीष्ट रहा है, वैसे ही उन्होंने अपनी रचनाओं में भी नए प्रयोग किए हैं। कौलूयशोविलास इसका जीवन्त निदर्शन है। कालूयशोविलास-१ / ४६
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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