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________________ हरिभद्र, सिद्धसेन आदि युगप्रधान आचार्यों ने इस संबंध में परिश्रमपूर्वक जो कार्य किया है, वह उल्लेखनीय है। किंतु कुलिखित पाठ का दोष किसी को नहीं देना चाहिए। जब संकलनकार स्वयं ही ग्रंथ की प्रामाणिकता में संदिग्ध हैं और वे विसंगत तथ्यों की जिम्मेदारी लेना नहीं चाहते हैं, वैसी स्थिति में इन ग्रंथों को प्रामाणिक कैसे माना जाए? १०४. साधनाशील साधु साधक होता है, सिद्ध नहीं। साधनाकाल में प्रमादवश होनेवाली स्खलना की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। स्खलना के परिष्कार की दृष्टि से गुरु का मार्गदर्शन और साधक की अपनी जागरूकता उसके जीवन में अकल्पित रूपान्तरण घटित कर देती है। मुनि बिरधीचन्दजी (वृद्धिचन्दजी) आत्मार्थी और तपस्वी साधु थे। एक बार प्रमादवश उनसे कोई गलती हो गई। आचार्यश्री कालूगणी तक बात पहुंची। उन्होंने साधुओं की सभा में कड़ा उपालम्भ दिया और उनका सिंघाड़ा समाप्त कर दिया। बात यहीं समाप्त नहीं हुई। उन्हें उन्हीं के अनुगामी, जो दीक्षापर्याय में उनसे छोटे थे, मुनि जयचन्दलालजी (सुजानगढ़) के साथ रहने का निर्देश दे दिया। आचार्यश्री की उस दिन की डांट इतनी कड़ी थी कि सुनने वाले अन्य साधु भी कांप उठे। पर मुनि बिरधीचन्दजी ने उस कठोर उपालम्भ को भी विनम्रता और शाान्ति के साथ नतमस्तक होकर स्वीकार किया। ऐसा करके उन्होंने अपनी आत्मार्थिता का तो परिचय दिया ही, वे धन्यवाद के भी पात्र बन गए। आचार्य तुलसी ने उनको सौ-सौ साधुवाद देकर एक उल्लेखनीय उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। १०५. बीकानेर-प्रवास में प्रातःकालीन व्याख्यान में 'कालूयशोविलास' का व्याख्यान चलता था। कालूगणी के शरीर पर लू का प्रकोप हुआ-इस प्रसंग का वाचन जिस दिन हुआ, उसी दिन सायंकाल आकस्मिक रूप से ठंडी हवा चलने लगी। इस आकस्मिक परिवर्तन को लक्षित कर आचार्यश्री तुलसी का कविहृदय मुखरित हो उठा। उन्होंने वायु को संबोधित कर उत्प्रेक्षा करते हुए कहा रे रे वायो! सुदृढ़मधुना शीतलीभूय वासि, ज्ञातं ज्ञातं सपदि मयका हार्दिकं तन्निमित्तम्। आयासस्ते गुरुगदभवं प्राक्कलङ्क पिधातुं, नालं किन्तु प्रभुनुतिमये काव्यके मुद्रितः सः।। १०६. मुनि रणजीतमलजी के संबंध में आचार्यश्री तुलसी द्वारा कथित सोरठे परिशिष्ट-१ / ३११
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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