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________________ २५. बोल्यो विभु-यचा सांभळी रे, भगवानो भूदेव। सत्य गणेशीलालजी रे, स्वामी वदै स्वमेव ।। २६. पहिला मंडन कीजिए रे, खंडन करसी आप। श्रोता सुणसी सांतरो रे, आपस रो आलाप।। २७. यूं बहुली झकझोड़ स्यूं रे, नीठ निकाळ्यो पाठ। छेद सूत्र-व्यवहार' रो रे, संभळायो शुभ घाट। २८. सांभोगिक मुनि साधवी रे, तिणनै कळपै नाय। आपस में कारण बिना रे, व्यावच करणी प्राय।। २६. देण-लेण भत-पाण रो रे, व्यावच वच रो अर्थ। साक्षी भ्रमविध्वंस की रे, एतदर्थ अभ्यर्थ ।। ३०. हट्टे कट्ठे होय के रे, एकठे बहु साध। आर्यां-याचित भोगणो रे, श्री जिनवचन विराध ।। __ 'सुजना! सांभळो। है चरचा रो संबंध, सुजना! सांभळो, अति अनुभवस्यो आनंद, सुजना! सांभळो, श्री सद्गुरु सुखद समंद, सुजना! सांभळो, पावै जो भाग्य अमंद, सुजना! सांभळो, ३१. पूछ स्वामी प्रेम स्यूं, जो द्वादशविध संभोग। सुजना! सांभोगिक श्रमणी-मुनी, कहिवाये करत प्रयोग।। सुजना! ३२. नाम कहो गणना करी, तब वदै गणेशी व्यस्त। एक-एक इण अवसरे, नहिं वरते सहु कण्ठस्थ।। ३३. भैक्षवसंघ-शिरोमणी संभलावै सकल सुरंग। पाठ दिखावै प्रवर ही, सहसा ग्रहि समवायंग।। ३४. इतरेतर मुनिवर सती, जो बारहविध संभोग। कुण-सा कुण-सा कर सकै? आखो समुचित उपयोग।। ३५. थारै उत्तर स्यूं सही, हो ज्यासी प्रश्न खलाश। अनपवाद अपवाद री नहिं करणी पड़े तलाश ।। १. व्यवहार सूत्र उद्देशक ५ सूत्र २० २. लय : खोटो लालचियो ३. देखें प. १ सं. ६२ २१० / कालूयशोविलास-१
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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