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________________ ४१. देशव्रती श्रावक में जो नहिं किरिया अपचखाणी रे, (तो) मिट्यो देश सर्व आंतरो । प्रथम शतक में तीन क्रिया', आ क्यूं है खींचाताणी रे, समझो रहस्य सिद्धांत रो ।। ४२. आगम रा अधिकृत अध्येता श्रमणी - श्रमण सदा स्यूं रे, आगम- श्रुति - आधार में । मुद्रणबहुल समय में अब कुण करसी रोक कठा स्यूं रे? प्रवहमान युगधार में ।। ४३. 'ज्यूं-ज्यूं तर्क-वितर्कां रो उत्थान जो, समाधान सिद्धांत-युक्ति-पथ स्यूं दियो । छापाबाजी रो विवाद वीरान जो, नहीं भटकणो नीति-निपुण जुग जुग जियो । । ४४. सक्षम समता भावे श्रुतपारीण जो, सिद्ध करी तेरापथ री शालीनता । छट्ठी ढाळे सदा रही अक्षीण जो, जिनशासन में वैचारिक स्वाधीनता ।। ढाळः ७. दोहा १. पूज्य शहर सरदार में, कीन्हो अथग प्रयास । आयो श्रावक संघ में, एक नयो उछ्वास । । २. चूरू री पूरी करण, माघ - महोत्सव - आश । समवसऱ्या पुरजन तर्या, अधिको ज्ञान उजास । ३. कतिपय दिन रै आंतरै, स्थानकवासी पूज । चूरू आया हूंस धर, नई निकाली सूझ ।। ४. बारहविध संभोग' री, छेदसूत्र री छाण । जन-जन मुख चरचा करै, भोळां नै भरमाण ।। ५. देणो-लेणो नितप्रती, उपधि भक्त अरु पाण। साधु साधवी नै नहीं कळपै, श्री जिन-आण ।। १. भगवई स. १/६७ २. लयः प्रभुवर आवी वेलां क्यारे ३. साधु-साध्वियों के पारस्परिक व्यवहार उ. ३, ढा. ६, ७ / २०७
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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