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________________ ३३. सुणकर तीनूं ही दृष्टांत, सोचो कर अंतर-मन शांत । सावज विनय बढ़ावै जी, सावज विनय बढ़ावै जी ।। ३४. सेवा साझै जो जगमान्य, बाजै विनयी विज्ञ वदान्य | लौकिक लाभ कमावै जी, लौकिक लाभ कमावै जी ।। ३५. समझो निरवद - विनय विनीत ! जनक रु जननी नै वर रीत । जो कोइ धरम पमावै जी, जो कोइ धरम पमावै जी ।। ३६. जोवो तीजो अंग' सुजाण, न्याय पतीजो कर पहचाण । ऊऋणता अजमावै जी, उऋणता अजमावै जी ।। आज म्हारे आंगणियै में मोतीड़ा मेह बरसै रे । प्रवचन -घन गुरुदेव रो ।। ३७. मोहमयी अनुकम्पा सावज, निरवद है निरमोही रे, सहज सिद्ध त्यो द्वैधता । उदाहरण ल्यो जनरिख मेघ' धर्मरुचिर आत्मविशोही रे, भेदद्वय री वैधता ।। ३८. छद्मस्थां री चूक, बात आ है कोई अणहोणी रे? गोतम रो ल्यो दाखलो | अनुकंपा-व्यामोह वशे, क्यूं करणी आंख-मिचोणी रे? समतामृत-रस चाखलो ।। ३६. श्री जिन - आज्ञा बारै जाबक मिथ्यात्वी री करणी रे, (तो) कुण क्यूं समदिष्टी बणै? सूत्र भगवती - सरणी रे ँ, पहुंचै शिवपुर प्रांगणे । । कृष्णा लेश्या पावै रे, छट्टै गुणठाणै गुणो । मूलोत्तर गुण में मुनि गलत प्रभावे दोष लगावै रे, आगम-भाषा में सुणो ।। कथा असोच्चा- केवली री ४०. मनपर्यवज्ञानी में भावै १. ठाणं ३।८७ २. लय : तेजा ३. देखें प. १ सं. ८८ ४. देखें प. १ सं. ८६ ५. देखें प. १ सं. ६० ६. देखें प. १ सं. ६१ ७. भगवई श. ६ । ३२ २०६ / कालूयशोविलास-१
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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