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________________ महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति जैन आगमों में आदर्श शिक्षक के गुणों का उल्लेख हुआ है । सूत्रकृतांग में आदर्श शिक्षक, आचार्य के गुणों का निम्न प्रकार से वर्णन मिलता है - आदर्श शिक्षक शिष्यों के संदेहों का अन्त करते हैं, सत्य को नहीं छिपाते, गलत सिद्धान्त का प्ररूपण नहीं करते, जिनमें अहं नहीं होता, अन्य धर्मों के शिक्षकों की बुराई नहीं करते। जो सब धर्मों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सही अर्थ में विद्वत्ता ग्रहण करते हैं, जिनका जीवन पूर्ण तपस्यामय होता है और जिनकी वाणी विशुद्ध होती है (सूत्रकृतांग, I.14.18-27 [108])। विनीत - अविनीत शिष्य 31 विनीत तथा अविनीत दोनों प्रकार के शिष्य उस युग में आज की भांति ही होते थे । विनीत शिष्य गुरु के आज्ञा-निर्देश का पालन करने वाले और सेवा, शुश्रूषा करने वाले होते थे (उत्तराध्ययन, 1.2 [109])। विनय को धर्म का मूल बताया है और विनय के द्वारा ही मनुष्य शीघ्र ही शास्त्रज्ञान एवं कीर्ति को प्राप्त करता है तथा अन्त में निःश्रेयस (मोक्ष) भी इसी द्वारा प्राप्त करता है ( दशवैकालिक, 9.2.2 [110] ) । इसी ग्रन्थ में अविनीत को विपत्ति और सुविनीत को सम्पत्ति - ये दो बातें जिसके द्वारा जान ली जाती है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है ( दशवैकालिक, 9.2.21 [111] ) । जैसा कि उत्तराध्ययन में भी आता है - गुरु के द्वारा सूत्र, अर्थ और तदुभय (सूत्र और अर्थ दोनों) को पूछने पर जो विनययुक्त होता था, वही बता सकता था (तुलना, उत्तराध्ययन, 1.23 [112] ) । अर्थात् आचार्य विनीत को ही विद्या देते थे। ये तथ्य यह प्रमाणित करते हैं कि जैन परम्परा में भी शिक्षा व्यवस्था में शिष्य के लिए अनुशासित जीवन जीना आवश्यक था । किन्तु वह अनुशासन आत्मानुशासन था, परानुशासन नहीं । आचार्य तुलसी ने निज पर शासन फिर अनुशासन का जो सूत्र दिया, वह वस्तुतः जैन शिक्षाविधि का सार है। अविनीत शिष्य इसके विपरीत आचरण करने वाले होते थे। ऐसे शिष्य अपने अध्यापक के वचन सुन दूसरों पर प्रहार भी कर बैठते थे । हरिकेशी मुनि का एक प्रसंग है, जहां वे एक बार ब्राह्मण की यज्ञशाला में भिक्षा के लिए जाते हैं, तब ब्राह्मण अध्यापक के कहने पर विद्यार्थी मुनि को डंडों, बेंतों और चाबुकों से पीटने लगे (उत्तराध्ययन, 12.18-19 [113]) | इस प्रकार अविनीत शिष्यों पर अनुशासन कर गुरु प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता था (उत्तराध्ययन, 1.37 [ 114 ] ) । जैन आगमों में इस प्रकार के शिष्यों को गली - गर्दभ की उपमा से उपमित किया गया है (उत्तराध्ययन, 27.16 [115] ) ।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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