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________________ 30 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद 3. श्रवण विधि-श्रवण विधि के सात अंग हैं-1. मूक-मूक, मौन भाव से सुनना। 2. हुंकार-हुँ, ऐसा कहकर स्वीकार करना। 3. वाढंकारं-ऐसा ही है अन्यथा नहीं है, ऐसे कहना। 4. प्रतिपृच्छा-प्रश्न करना। 5. विमर्श-पुनः विचार-विमर्श करना। 6. प्रसंगपारायण-सुने हुए श्रुतप्रसंग का पारायण करना। 7. परिनिष्ठा-तत्त्वनिरूपण में पारगमिता प्राप्त करना (नंदी, 4.127 [102])। 4. तर्क विधि-तर्क-वितर्क करके विषयवस्तु को स्थपित करना। जैसे उदाहरण के रूप में उत्तराध्ययन का केशी गौतम संवाद को ले सकते हैं। इसके अतिरिक्त भी वाद-विवाद विधि, व्याख्यान विधि, प्रश्नोत्तर विधि, आगमन-निगमन विधि आदि के प्रमाण आगमों में प्राप्त होते हैं। गुरु शिष्य सम्बन्ध 600 ई.पू. में अध्यापक बहुत आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। जैन आगमों में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख मिलता है-कलाचार्य, धर्माचार्य और शिल्पाचार्य। इनमें से कलाचार्य शिक्षा (प्रारम्भिक शिक्षा अध्ययन) से संबंधित होते थे, जिनके पास विद्यार्थियों को अध्ययन के लिए भेजा जाता था। मेघकुमार जब आठ वर्ष से कुछ अधिक का हुआ तब उसके माता-पिता शुभ मुहूर्त तिथि में उसे कलाचार्य के पास ले गए थे (ज्ञाताधर्मकथा, I.1.84 [103])। कलाचार्य द्वारा मेघकुमार को लेख, गणित और शकुन आदि पर्यवसानवाली बहत्तर कलाओं का सूत्र, अर्थ और क्रियात्मक रूप से अभ्यास कराया गया (ज्ञाताधर्मकथा, I.1.86 [104])। वस्तुतः उस समय में बहत्तर कलाओं के अन्तर्गत सम्पूर्ण विद्या शाखाएँ समाविष्ट हो जाती थीं। विद्यार्थी जब बाहर से विद्याध्ययन पूर्ण कर कलाचार्य के साथ घर आता तो उसके कलाचार्य को इतने विपुल वस्त्रों, अलंकारों से सम्मानित किया जाता, जितने कि उसके जीवन भर आर्थिक परेशानी न आये (I. ज्ञाताधर्मकथा, I.1.87, II. अन्तकृद्दशा, III.1.9, राजप्रश्नीय, 808 [105])। आपस्तम्ब धर्मसूत्र में भी अध्यापक की समाज में बहुत सम्मानित स्थिति प्राप्त होती है। वह विद्यार्थी को अज्ञान के अंधकार से दूर कर ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने वाला माना जाता था। वह विद्यार्थी का आध्यात्मिक और बौद्धिक पिता समझा जाता था, क्योंकि वह उसमें नये जीवन का संचार करता था। बिना उसकी सहायता और निर्देशन के शिक्षा संभव नहीं थी (आपस्तम्ब धर्मसूत्र, I.1.13-17 [106])। जैसा कि महाभारत में भी आया है कि गुरु के उपदेश ग्रहण के अलावा विद्याभ्यास निषिद्ध था (महाभारत, शान्तिपर्व, 326.22 [107])। अर्थात् शिक्षा में गुरु-शिष्य प्रणाली का होना अनिवार्य था।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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