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________________ महावीरकालीन अन्य मतवाद 221 किन्तु यह है कर्ताविहीन सृष्टि। यह किसी एक मूल तत्त्व के द्वारा निष्पन्न सृष्टि नहीं है। मूल तत्त्व दो है-चेतन और अचेतन। ये दोनों ही अपने-अपने पर्यायों द्वारा बदलते रहते हैं। सृष्टि का विकास और ह्रास होता रहता है। महावीर ने कहा-द्रव्य दृष्टि से लोक नित्य है। पर्याय उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं। इस दृष्टि से वह अनित्य है (भगवती, 7.2.59 [598])। वस्तुतः सृष्टि उत्पत्ति सम्बन्धी प्रश्न-इस सृष्टि का उद्भव कैसे हुआ? इसका आदिस्रोत क्या है? उत्पन्न कहां से हुआ? जिसका अस्तित्व होता है उसका मूल भी होता है। क्या यदि हां तो वह क्या? आदि-आदि प्रश्न प्राचीन समय से लेकर आज तक चर्चा के विषय रहे हैं। क्योंकि हर धर्म के अनुयायियों द्वारा अपने धर्म को किसी न किसी रचयिता से सृष्टि की उत्पत्ति का सम्बन्ध बताया जाता है। इसका एक कारण तो यह है कि प्रायः लोगों में यह धारणा मानी जाती है कि उसके ऊपर कोई बड़ी दिव्य शक्ति है जो इस सृष्टि को चला रही है अर्थात् जिसके सहारे यह दुनिया कायम है। मनुष्य में इतनी शक्ति कहां जो इस सृष्टि को चला सके, उसे गतिशील रख सके। यह जो सृष्टि हमें दिख रही है, जिसका अस्तित्व है उसके उद्भव के मूल में कोई बड़ी शक्ति अवश्य ही है। चाहे इसके पीछे कोई प्राकृतिक तत्त्व हो अथवा ब्रह्मा, विष्णु, ईश्वर आदि का हाथ हो। यह धारणा सृष्टि उत्पत्ति के विभिन्न मतों के कारण रूप में मौजूद है। 5. पंचमत के समकालीन मतवाद कर्मोपचय सिद्धान्त कर्म और कर्मफल के सम्बन्ध का सिद्धान्त सभी भारतीय दर्शनों का प्रमुख सिद्धान्त है, केवल चार्वाक को छोड़कर, तथा जीव और कर्म का अन्योन्याश्रव सम्बन्ध बताया गया है। आगमों में एक ऐसे मत का उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार जो जीव को जानता हुआ काया से उसे नहीं मारता अथवा अबुध हिंसा करता है-अनजान में किसी को मारता है, उसके अव्यक्त सावध स्पृष्ट होता है। उसी क्षण उसका वेदन हो जाता है, वह क्षीण होकर पृथक् हो जाता है। ये तीन आदान-मार्ग हैं, जिनके द्वारा कर्म का उपचय होता है
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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