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________________ 220 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद मरते हैं। इसलिए यह लोक अशाश्वत है किन्तु ज्ञान, दर्शन, उपयोग रूप जीव का कभी नाश नहीं होता यह निश्चय दृष्टि से सत्य है। व्यवहार दृष्टि से वह मर गया, यह कथन माया ही है। अण्डकृत सृष्टि सृष्टि उत्पत्ति के सम्बन्ध में सूत्रकृतांग में एक मत का उल्लेख हुआ है, जिसके अनुसार कुछ श्रमण और ब्राह्मण यह कहते हैं कि यह जगत् अण्डे से उत्पन्न हुआ है (सूत्रकृतांग, I.1.3.67 [593])। जिनदासगणि के मत में ब्रह्मा ने अण्डे का सृजन किया उसके टुटने से शकुनवत् (पक्षी की भाँति) लोक प्रादुर्भूत हुआ। वह जब फूटा तब सारी सृष्टि प्रकट हुई (सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 42 [594])। जिस समय इस जगत् में कुछ नहीं था, यह संसार पदार्थ शून्य था। उस समय ब्रह्मा ने जल में एक अण्डा उत्पन्न किया। वह अण्डा क्रमशः बढ़ता गया। जब वह दो भागों में विभक्त हुआ तब एक भाग ऊर्ध्व लोक, दूसरा भाग अधोलोक और उनके मध्य में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, आकाश, समुद्र, नदी, पर्वत आदि की संस्थिति हुई (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 64 [595])। जैसा कि मनुस्मृति में भी आता है कि सृष्टि से पहले यह (सब कुछ) अन्धकारमय, अप्रत्यक्ष, लक्षण रहित, तर्क रहित तथा अविज्ञेय सब ओर से सोया हुआ था (मनुस्मृति, 1.5 [596])। ऐसी अवस्था में ब्रह्मा ने अण्डा आदि के क्रम से इस समस्त जगत् को बनाया। विचारणीय बात यही है कि प्रायः यह माना जाता है कि श्रमण परम्परा के जैन और बौद्ध दोनों प्रमुख सम्प्रदाय जगत् को अनादि और अकृत मानते हैं। किन्तु उस समय कुछ श्रमण सम्प्रदाय जगत् को भी अंडकृत मानते थे। लोककर्तृत्व सम्बन्धी उक्त सब कल्पनाएँ अथवा मान्यताएँ महावीर के मत में असंगत है। जो यह कहते हैं कि लोक अपने पर्यायों से कृत है अथवा विनाशी है वे लोक के यथार्थ स्वभाव या तत्त्व को नहीं जानते हैं (सूत्रकृतांग, I.1.3.68 [597])। भगवान् महावीर ने जगत् के विषय में दो नयों से विचार किया है। इस जगत् को सृष्टि माना भी जा सकता है और नहीं भी माना जा सकता है। द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से यह जगत् शाश्वत है। जितने द्रव्य थे उतने ही रहेंगे। एक अणु भी नष्ट नहीं होता और एक अणु भी नया उत्पन्न नहीं होता। पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से जगत् को सृष्टि कहा जा सकता है,
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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