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________________ जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद असंभव है। इस प्रकार यह दर्शन एक प्रकार से मानवीय व्यक्तित्व को पंगु ( निष्क्रिय) बनाने जैसा है । 212 विनयवाद विनय को सर्वधर्मों का मूल कहा गया है और विनयशील व्यक्ति को सर्वत्र उपादेय भी माना गया है किन्तु महावीर के समय एक ऐसी विचारधारा थी, जो सर्व-प्राणियों के प्रति विनय प्रदर्शित करने में अपना सर्वोपरि कर्तव्य समझते थे। विनय को ही सिद्धि प्राप्ति का साधन मानते थे । उनमें सत्-असत्, अच्छे-बुरे, सज्जन - दुर्जन आदि का विवेक नहीं होता था और सभी को एक मानकर वन्दना - नमन करते, मान-सम्मान आदि देते । जैन आगमों में विनयवाद को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि जो सत्य है या, असत्य है, इसे नहीं जानते हुए तथा यह असाधु ( बुरा) है, उसे साधु (अच्छा) यह मानते हुए जो बहुत से विनयवादी जन हैं, वह पूछने पर अपने मन के अनुसार ही विनय को ही यथार्थ बतलाते हैं (सूत्रकृतांग, I. 12.3-4 [550])। अर्थात् उसी से मुक्ति की प्राप्ति बताते हैं । इस प्रकार विनयवाद का मूल आधार विनय है । जिनदासगणी के अनुसार विनयवादियों के मत में किसी भी सम्प्रदाय या गृहस्थ की निंदा नहीं करनी चाहिए। सबके प्रति विनम्रता होनी चाहिए (सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 206 [551]) उक्त तथ्य का ही समर्थन करता है। उनके अनुसार देवता, राजा, यति, ज्ञाति, स्थविर, कृपण, माता-पिता- इन आठों का मन, वचन, काय और दान से विनय करना चाहिए (सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 206 [552])। शीलांकाचार्य ने विनय का अर्थ विनम्रता ही किया है (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 140 [553]) किन्तु आचार्य महाप्रज्ञ के मतानुसार प्रस्तुत प्रसंग में विनय का अर्थ आचार होना चाहिए ।' भगवती में पाणामा एवं दाणामा प्रव्रज्या का स्वरूप निर्दिष्ट है । तामली गाथापति ने 'पाणामा' प्रव्रज्या स्वीकार की । इस प्रव्रज्या से प्रव्रजित होने वाला जहां जिस इन्द्र, कार्तिकेय, रुद्र, शिव, वैश्रमण, राजा, युवराज, कोटवाल, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, कौवा, कुत्ता अथवा चाण्डाल आदि 1. सूयगडो, I.1.3.65 का टिप्पण पृ. 42-43.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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