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________________ 209 महावीरकालीन अन्य मतवाद प्रश्नों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रश्न - 1. क्या दुःख स्वकृत है? 2. क्या दुःख परकृत है? 3. क्या दुःख स्वकृत और परकृत है? 4. क्या दुःख अस्वकृत और अपरकृत है ? (संयुत्तनिकाय, XII. 17 [546] ) भी उक्त चार पक्षों अथवा भंगों की ही पुष्टि करते हैं । वस्तुतः ये संशयवादी या अज्ञानवादी हर युग में हुए हैं । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखे तो इन्होंने अपने आप को हर युग में अलग-अलग तरीके से व्यक्त किया, अथवा इनके प्रतिपादन का तरीका भिन्न-भिन्न रहा । उस समय के दार्शनिकों ने इन भंगों का किसी न किसी रूप में प्रयोग किया है । फिर यह मानने का कोई अर्थ नहीं है कि जैनों ने संजयवेलट्ठपुत्र के भंगों के आधार पर स्याद्वाद की सप्तभंगी विकसित की । ' स्यात् अस्ति' का अर्थ 'हो सकता है' - यह भी काल्पनिक है। जैन परम्परा में यह अर्थ कभी मान्य नहीं रहा है । भगवती में भगवान् महावीर से गौतम द्वारा पूछा गया भंते! द्विप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है ? अन्यरूप है ? भगवान् महावीर ने उत्तर दिया- द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यात् आत्मा है, स्यात् आत्मा नहीं है, स्यात् अवक्तव्य है। भंते! यह कैसे ? 'गौतम ! द्विप्रदेशी स्कन्ध स्व की अपेक्षा से आत्मा है, पर की अपेक्षा से आत्मा नहीं है और उभय की अपेक्षा से अवक्तव्य है' (भगवती, 12. 218-19 [547])। यह संशयवाद या अज्ञानवाद नहीं है। इसमें तत्त्व का निश्चयात्मक प्रतिपादन है । यह प्रतिपादन सापेक्ष दृष्टिकोण से है, इसलिए यह अनेकान्तवाद या स्याद्वाद है। भगवती में आए पुद्गल स्कन्धों की चर्चा के प्रसंग में स्याद्वाद के सातों ही भंग फलित होते हैं । भगवती दर्शनयुग में लिखा हुआ कोई दार्शनिक ग्रन्थ नहीं है। वह महावीरकालीन आगमसूत्र है । इससे यह ज्ञात होता है कि स्याद्वाद संजयवेलट्ठपुत्त के सिद्धान्त से उधार लेने की बात सर्वथा आधारशून्य है। संजय के मत के अनुयायी का वर्णन ब्रह्मजालसुत्त में अमराविक्खेपिक के रूप में किया गया है। जो जब प्रश्न पूछा जाता है, असंदिग्ध उत्तर देता- भिक्षुओं !
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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