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________________ जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद दशाश्रुतस्कन्ध, 6.7 [516 ] ) । वहां क्रियावादियों का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है कि जो 198 1. अस्तित्ववाद - आत्मा और लोक के अस्तित्व की स्वीकृति को मानते हैं, 2. सम्यग्वाद- नित्य और अनित्य- दोनों धर्मों की स्वीकृति - स्याद्वाद, अनेकान्तवाद को मान्य करते हैं, 3. पुनर्जन्मवाद में विश्वास करते हैं तथा 4. आत्मकर्तृत्ववाद की स्वीकृति को मानते हैं, वे क्रियावादी हैं । आचारांग में आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद का उल्लेख है (आचारांगसूत्र,I.1.1.5 [ 517 ] ) । प्रस्तुत सन्दर्भ में आत्मवाद, लोकवाद और कर्मवाद का स्वतन्त्र निरूपण है अतः यहां क्रियावाद का अर्थ केवल आत्मकर्तृत्ववाद है । किन्तु समवसरण अवधारणा के प्रसंग में क्रियावाद का तात्पर्य आत्मवाद, कर्मवाद, लोकवाद आदि सभी सिद्धान्तों से सम्बद्ध है। आचार्य महाप्रज्ञ के मत में आत्मा और कर्म का सम्बन्ध क्रिया के द्वारा ही होता है। जब तक आत्मा में रागद्वेषजनित प्रकम्पन विद्यमान है, तब तक उसका कर्म परमाणुओं के साथ सम्बन्ध होता है, इसलिए कर्मवाद क्रियावाद का उपजीवी है। वस्तुतः क्रिया का सम्बन्ध जीव और नैतिकता से जुड़ा हुआ प्रश्न है । बी. एम. बरुआ ने क्रियावाद की मनोवैज्ञानिक- नैतिक, जैविक-मनोवैज्ञानिक तथा ज्ञानमीमांसीय दृष्टि से विस्तृत विवेचना की है, कलेवर वृद्धि के भय से उसे यहां प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है ।" निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि जो आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं, सम्यग्दर्शन एवं पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं तथा जो आत्मा के कर्तृत्व को स्वीकार करते हैं, क्रियावाद में उन सभी धर्म प्रवादों को शामिल किया जा सकता है। जिनदासगणी के अनुसार क्रियावादी जीव का अस्तित्व मानते हैं लेकिन जीव के स्वरूप के विषय में एक मत नहीं हैं । क्रियावादी के अनुसार जीव है । 1. आचारांगभाष्यम् - संपा. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूँ, 1994, पृ. 25. 2. B.M. Barua, A History of Pre-Buddhistic Indian Philosophy, pp. 383-404.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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