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________________ महावीरकालीन अन्य मतवाद वस्तुतः धर्म प्रचार के लिए वाद एक सशक्त माध्यम था । यही कारण था कि भगवान् महावीर के ऋद्धिप्राप्त शिष्यों की गणना में वाद-प्रवीण शिष्यों की पृथक् गणना हुई है। स्थानांग में भगवान् महावीर के वादी शिष्यों की संख्या सौ बताई गई है, जो देव परिषद्, मनुज परिषद् तथा असुर परिषद् से अपराजेय थे (स्थानांग 4.648 [468])। 185 वाद कला में ऐसे कुशल साधुओं के लिए कठोर नियमों को भी मृदु बनाया जाता था। बृहत्कल्प भाष्य ( 6ठी ई. सदी) में तो यहां तक कहा गया है कि मलिन वस्त्रों का प्रभाव सभाजनों पर अच्छा नहीं पड़ता है, अतः वह साफ-सुथरे कपड़े पहनकर सभा में जाता है। रूक्षभोजन करने से बुद्धि की तीव्रता में कमी न हो इसलिए वाद करने के प्रसंग में प्रणीत अर्थात् स्निग्ध भोजन लेकर अपनी बुद्धि को सत्वशाली बनाने का यत्न करता है। ये सब सकारण आपवादिक प्रतिसेवना है (बृहत्कल्पभाष्य, 6035 [469])। 2. श्रमण संस्कृति धर्मप्रधान भारतवर्ष में विभिन्न धर्मानुयायियों, ऋषियों का अस्तित्व यहां अति प्राचीनकाल से रहा है, जिनके अनेक सम्प्रदाय एवं उसकी शाखाएँ, प्रशाखाएँ भी अस्तित्व में थीं। मैगस्थनीज ने भारतीय ऋषियों को श्रमण और ब्राह्मण- इन दो भागों में विभाजित किया, जिनमें श्रमण जंगल में रहते थे और वे लोगों की परम श्रद्धा के पात्र थे। किसी तीर्थंकर या मुनि के नगर में पधारने पर वहां उत्सव जैसा माहौल हो जाता था और सामान्य जनता ही नहीं, बल्कि अनेक उग्र, उग्रपुत्र, भोग, भोगपुत्र, क्षत्रिय, ब्राह्मण, शूर, योद्धा, धर्मशास्त्रपाठी, लिच्छवी आदि सहित राजा अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ उनके दर्शन पर्युपासना के लिए जाते थे ( I. ज्ञाताधर्मकथा, I. 5.17, II. औपपातिक, 38, 47, 52, 54 ब्या. प्र. [ 470] ) । श्रमण संस्कृति प्राचीनतम भारतीय संस्कृतियों में से एक है, जो आर्हत संस्कृति के नाम से भी जानी जाती थी । अर्हत् की उपासना करने वाले आर्हत कहलाते थे। जिसे आज हम जैन धर्म या जैन संस्कृति के नाम से जानते हैं, 1. McCrindle, The Invansion of Alexander the Great, p. 358 (as quoted in J. C. Jain, Life in Ancient India as Depicted in the Jain Canon and Commentaries, p. 288).
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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