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________________ नियतिवाद 165 शुभ या अशुभ रूप में प्राप्तव्य होता है, वह अवश्य प्राप्त होता है। महान् प्रयत्न करने पर भी अभाव्य कभी नहीं होता और भाव्य का कभी नाश नहीं होता है" (आचारांगवृत्ति, I.1.3 [433])। __ नन्दी की अवचूरि में नियतिवाद का स्वरूप इस प्रकार प्रस्तुत है-नियति नामक पृथक् तत्त्व है, जिसके वश में ये सभी भाव है और वे नियत रूप से ही उत्पन्न होते हैं, अन्यथा रूप से नहीं होते हैं। क्योंकि जो जब-जब जिससे होना होता है, वह तब तब उससे ही नियत रूप से होता हुआ प्राप्त होता है। ऐसा नहीं मानने पर कार्यकारणभावव्यवस्था और प्रतिनियत व्यवस्था (जिससे जो नियत रूप से होता है) संभव नहीं है, नियामक (नियन्ता) का अभाव होने से। इसलिए कार्य के नियत होने से प्रतीयमान नियति को कौन प्रमाणमार्गी बाधित कर सकता है? अन्यत्र भी प्रमाण पथ के व्याघात का प्रसंग नहीं आता है। जैसा कि कहा गया है-नियत रूप से ही सब पदार्थ उत्पन्न होते हैं, इसलिए ये अपने स्वरूप से नियतिज है। जो जब, जिससे, जितना होना होता है, वह, तब, उससे और उतना नियत रूप से न्यायपूर्वक होता है, इस नियति को कौन बाधित कर सकता है? अर्थात् कोई नहीं (नन्दीसूत्र मलयगिरि अवचूरि, पृ. 179 [434])। 4. नियतिवाद के सम्बन्ध में आचार्य महाप्रज्ञ के विचार ___नियति के संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ का अपना मौलिक चिन्तन है। उनके मतानुसार-“जो कुछ होता है, वह सब नियति के अधीन है। नियति का यह अर्थ ठीक से नहीं समझा गया। लोग इसका अर्थ अभवितव्यता करते हैं। जो जैसा होना होता है, वह वैसा हो जाएगा-यह है भवितव्यता की धारणा, नियति की धारणा। नियति का यह अर्थ गलत है। इसी आधार पर कहा गया-'भवितव्यं भवत्येव गजमुक्तकपित्थवत्' अर्थात् जैसा होना होता है वैसा ही घटित होता है। हाथी कपित्थ का फल खाता है और वह पूरा का पूरा फल मलद्वार से निकल जाता है, क्योंकि भवितव्यता ही ऐसी है। नारियल के वृक्ष की जड़ों में पानी सींचा जाता है और वह ऊपर नारियल के फल में चला जाता है। यह भवितव्यता है। यह नियतिवाद माना जाता है। पर ऐसा नहीं है। नियति का अर्थ ही दूसरा है। नियति का वास्तविक अर्थ है-जागतिक नियम,
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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