SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियतिवाद 161 हेतु और प्रत्यय के सत्व शुद्ध होते हैं। न वे स्वयं कुछ कर सकते हैं और न पराये कुछ कर सकते हैं, (कोई) पुरुषार्थ (पुरुषकार) नहीं है, बल नहीं है, वीर्य नहीं है, पुरुष का साहस नहीं है और न पुरुष का कोई पराक्रम है। समस्त सत्व, समस्त प्राणी सभी भूत और सभी जीव अवश (लाचार) हैं, निर्बल हैं, निर्वीय हैं, नियति के संयोग से छह जातियों में (उत्पन्न होकर) सुख-दुःख भोगते हैं (दीघनिकाय, I.2.168, पृ. 59 [422])। यहाँ गोशाल के इन तथ्यों में प्रयत्न और पुरुषार्थ की उपयोगिता की व्यर्थता प्रमाणित हो रही है। साथ ही यहाँ पर 'नियतिसंगति भाव परिणता' शब्द का उल्लेख हुआ है और सूत्रकृतांग में भी 'नियति' और 'संगति' शब्द का उल्लेख हुआ है, जो दोनों में साम्यता दर्शाता है। सांगतिक की व्याख्या इस प्रकार मिलती है-जो सम्यक् अर्थात् अपने परिणाम से भलीभांति जो गति है, उसे संगति कहते हैं। जिस जीव को जिस समय, जहां, जिस सुख-दुःख का अनुभव करना होता है, वैसी स्थिति संगति कहलाती है, वही नियति है और उस संगति अर्थात नियति से जो सुख-दुःख उत्पन्न होता है, उसे सांगतिक कहते हैं। तात्पर्य यह है कि प्राणियों के सुख-दुःख उनके अपने पुरुषार्थ या उद्यम द्वारा कृत नहीं है बल्कि नियति द्वारा कृत है। इस प्रकार कोई भी पदार्थ शुभ-अशुभ, सुकृत-दुष्कृत जो कुछ है, वो अगर भाव्य है अर्थात् प्राप्त होने योग्य है तो वह मनुष्य को नियति के बल पर अवश्य प्राप्त होगी और जो कुछ अभाव्य अर्थात् नहीं होने योग्य है तो वह कितने ही पुरुष पराक्रम (पुरुषार्थ) करने पर भी मनुष्य को प्राप्त नहीं होगी, क्योंकि उसकी नियति ही ऐसी है (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 59 [423])। वृद्धि और परिणति का जो जीव जगत् है ये सब निश्चित लक्ष्य के साथ जो जीवन में विभिन्न अवसर (सुख-दुःख) इत्यादि आते हैं वह संगति है। नियति, संगति और भाव तीनों मिलकर परिणति की प्रक्रिया पूरी करते हैं, जो पहले से ही निश्चित है। इस तरह यह सांख्य के परिणामवाद से कुछ भिन्न है। सांख्य के अनुसार जो परिणामकर्म है वही नियम है अर्थात् कोई भी परिणाम नियम से बाहर नहीं हो सकता। किन्तु नियतिवाद में पहले से ही नियत है। सांख्य और आजीवक दोनों ही नियति को मान्य करते थे किन्तु सांख्य कहते हैं कि जितने भव होने हैं वे सब प्रकृति के नियमानुसार ही निर्धारित हैं, अधीन हैं। किन्तु आजीवक के मत में पूरी तरह से नियंत्रण नियति का ही है। 1. Basham, History and Doctrines of the Ajivikas, p. 225.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy