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________________ 151 सांख्यमत तत्त्व आत्मा आदि पदार्थों को कथंचित नित्य और अनित्य तथा सत् और असत् इस प्रकार न मानकर केवल सत्कार्यवादी मानना और सद्सत्कार्य न मानते हुए केवल एकान्त मिथ्यात्व को पकड़े रहना ही आत्मषष्ठवादियों का मिथ्यात्व है । इस प्रकार सांख्यमतानुसार एकान्तरूप से आत्मा को निष्क्रिय, कूटस्थनित्य, अमूर्त, सर्वव्यापी एवं आत्मा एवं लोक को एकान्त नित्य मानने पर निम्न समस्याएँ उत्पन्न हो जाएँगी - 1. अगर सभी पदार्थों को एकान्त नित्य माना जाए तो आत्मा में कर्तृत्व परिणाम उत्पन्न नहीं होंगे और कर्तृत्व परिणाम के अभाव में कर्मबंध भी नहीं होगा। कर्मबंध के नहीं होने पर सुख-दुःख का अनुभव कौन करेगा? 2. कूटस्थ नित्य आत्मा के सदैव एक रूप रहने की स्थिति में किसी नये स्वभाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती । ऐसी स्थिति में वह आत्मा दुःखों के नाश के लिए प्रयत्न नहीं कर सकेगा अर्थात् कर्मक्षय हेतु तप, संयम और पच्चीस तत्त्वों का भी ज्ञान नहीं कर पायेगा । अतः मोक्ष आदि की प्राप्ति भी नहीं होगी । 3. प्रत्यक्ष दृश्यमान जगत्, जन्म-मरण, नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देवगति गमन रूप यह लोक - व्यवस्था फलित नहीं होगी, क्योंकि कूटस्थ नित्य आत्मा का एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में पर्यायों का धारण करना सम्भव नहीं होता है। अतः जीवों का विभिन्न गतियों में गमनागमन नहीं होगा तो जन्म-मरण रूप संसार भी परिणाम में नहीं आयेगा । अतः अकारकवाद एवं आत्मषष्ठवाद वास्तविकता से परे है तथा पुरुषार्थवाद के विपरीत रूप में इसे देखा जा सकता है।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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