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________________ 150 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद और एक आत्मा) का ज्ञाता पुरुष चाहे जिस किसी आश्रम में रहे और वह जटी, मुण्डी अथवा शिखाधारी हो, मुक्ति को प्राप्त करता है। यह भी निरर्थक हो जायेगा (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ.31 [406])। आत्मषष्ठवाद का निरसन __पांच भूत सहित आत्मा को छठा तत्त्व मानने वाले कुछ मतवादियों के अनुसार सत् का नाश नहीं होता, असत् का उत्पाद नहीं होता। इतना ही जीवकाय, अस्तिकाय, लोक है। यही लोक का कारण है और यही सभी कार्यों में कारण रूप से व्याप्त है अतः सर्व कार्य भी उन्हीं से होता है। आत्मा और लोक शाश्वत है उक्त सिद्धान्त को मानने वाले महावीर के मत में स्वयं क्रय करता और करवाता है, स्वयं हिंसा करता है और करवाता है, स्वयं पकाता है और पकवाता है और अन्ततः मनुष्य को बेचकर या मारकर भी यह कहता है कि इसमें दोष नहीं। वे नहीं जानते कि क्रिया-अक्रिया, सुकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, साधु-असाधु, सिद्धि-असिद्धि, नरक-स्वर्ग आदि का अस्तित्व है। इस प्रकार वे इस अज्ञान की स्थिति में रहकर निरन्तर विविध प्रकार के करिंभों द्वारा भोग के लिए नाना प्रकार के कामभोगों में निमग्न रहते हैं (सूत्रकृतांग, II.1.28-29 [407])। ___ असत् से भाव-सत् उत्पन्न नहीं होता तथा सत् से अभाव या असत् आविर्भूत नहीं होता। सभी पदार्थों को नित्य माना जाए तो कर्तृत्व का परिणाम या सिद्धान्त घटित नहीं होता। आत्मा का कर्तृत्व परिणाम न हो तो उसके कर्मबंध नहीं हो सकता तथा कर्मबंध न होने पर कोई सुख दुःख नहीं भोग सकता। ऐसा होने पर कृतनाश नामक दोष उत्पन्न होता है (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 37-38 [408]) अर्थात् अपने कृतकर्म का फल प्राणी को नहीं भोगना पड़ता है। यह सिद्धान्त विरुद्ध कथन है। अतः आत्मा को एकान्तरूप से नित्य मानना असंगत है। ___ जब तक पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती उनके कभी गुण और नाम भी नहीं हो सकते। जैसे जब तक घड़ा उत्पन्न नहीं होता, तब उसके द्वारा जल लाने का कार्य कैसे घटित हो सकता है। अतः उत्पत्ति से पहले कार्य असत् है। सभी पदार्थ कथंचित किसी अपेक्षा से नित्य और कथंचित किसी अपेक्षा से अनित्य है (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ.31 [409])। निष्कर्ष रूप से देखें तो पंचभूत तथा छठा
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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