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________________ 142 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद षष्टितंत्र का पृथक् पृथक् प्रयोग किया। संभव है ये दोनों पृथक् पृथक् शास्त्र हों और यह भी हो सकता है कि सूत्रकार ने इन ग्रन्थों का नाम निर्देश करते हुए उनके किसी विशेष क्रम की ओर ध्यान न दिया हो अन्यथा दोनों नाम साथ होने पर काविलं षट्ठियन्तम् का अर्थ होता है-कपिल के द्वारा रचा गया षष्टितंत्र नामक ग्रन्थ। कल्पसूत्र में भगवान महावीर को अनेक शास्त्रों में पारंगत बताया है जिसमें उन्हें षष्टितंत्र विशारद भी कहा है (कल्पसूत्र, 9, पृ. 140, सि.प्र. [388]), जिसकी व्याख्या में यशोविजयजी (1624-1688 ई.सन्) ने लिखा है कि कपिल के निर्माण किए गए शास्त्र का नाम षष्टितंत्र है, उसमें विशारद अर्थात् पण्डित (कल्पसूत्रटीका, सूत्र 9 की टीका [389])। इन तथ्यों से यह सिद्ध हो जाता है कि महावीर को षष्टितंत्र शास्त्र अर्थात् सांख्यदर्शन का ज्ञान था तथा साथ ही यह भी प्रमाणित हो जाता है कि षष्टितंत्र शास्त्र महावीर युग में अर्थात् महावीर के समय उपलब्ध था। षष्टितंत्र या सांख्यमत के साधक, ‘परिव्राजक' कहलाते थे। महावीर के समय षष्टितंत्र में पारंगत परिव्राजक तथा परिव्राजिकाओं की एक विकसित परम्परा प्राप्त होती है जो उस युग के सांख्य दर्शन, उसके सिद्धान्तों और सांख्य श्रमणों की विहार चर्या एवं वेशभूषा आदि के बारे में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध कराता है। उन परिव्राजकों की साधना चर्या का विवरण इस प्रकार है सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के आर्द्रकीय अध्ययन में गोशालक, बौद्धभिक्षु, ब्राह्मण (वेदवादी), हस्तितापस आदि मतवादियों के साथ एकदण्डी परिव्राजकों का भी उल्लेख है, इन सबका आर्द्रक के साथ वाद प्रतिवाद होता है। ये सभी आर्द्रक को स्वमत स्वीकार करने के लिए कहते हैं। इस चर्चा में परिव्राजक आर्द्रककुमार से कहते हैं कि तुम्हारा और हमारा धर्म समान है अर्थात् हमारा सिद्धान्त मिलता जुलता है। हम दोनों, धर्म में समुत्थित हैं, हमारा आचार, शील और ज्ञान समान है तथा परलोक के विषय में हमारा कोई मतभेद नहीं है। पुरुष अर्थात् आत्मा अव्यक्त रूप महान्, सनातन, अक्षय, अव्यय रूप है। वह सब प्राणियों के साथ संबंध रखता है जैसे ताराओं के साथ चन्द्रमा, अर्थात् आत्मा प्रत्येक शरीर में समान रूप से स्थित है (सूत्रकृतांग, II.6.46-47 [390])।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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