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________________ भूमिका वेद से लेकर उपनिषदों तक भारतीय चिन्तनधारा अपने उन्मुक्त प्रवाह में बह रही थी। अनेक आश्रमों, उपवनों, जंगल अथवा विहार स्थलों में अनेक ऋषि-मुनि, परिव्राजक आदि अपने-अपने विचारों, मतों को शिष्यों और जिज्ञासु के समक्ष रख रहे थे। किन्तु उन विचारों की कोई सुनिश्चित व्यवस्था नहीं थी अर्थात् श्रुति परम्परा के रूप में ही ये विचार चल रहे थे। उपनिषदों के काल से ही वैदिक धर्म विरोधी दार्शनिक मतों का अस्तित्व प्रमाणित होता है किन्तु इस काल के बाद जो समय आया, वह दार्शनिक मतवादों के प्रखर अभ्युदय का युग था। यह स्थिति न केवल भारतवर्ष में थी अपितु सम्पूर्ण विश्व में यह स्थिति देखी जा सकती है, जहां इन लोगों ने धार्मिक और दार्शनिक श्रद्धा का मूलोच्छेद कर डाला। इन विरोधी मतवादों की अधिक संख्या भी हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। इस युग के इतिहास के साधन नितान्त स्वल्प हैं, परन्तु जो कुछ आज उपलब्ध है, उसी से उस युग में सक्रिय विरोध की तीव्रता का अनुमान किया जा सकता है। ___भारत की सभी दार्शनिक परम्पराओं में भिन्न-भिन्न महत्त्वपूर्ण पहलुओं को लेते हुए अनेक वादों का प्रचलन हुआ, जिनका भारतीय चिन्तन में महत्त्वपूर्ण स्थान है कि किस प्रकार उन चिन्तकों ने गहराई में जाकर जीवन और जगत् से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने रखे। यह मानवीय स्वभाव है कि वह जो कुछ समझता है, उसे व्यक्त करना चाहता है, उसे शब्दों में प्रकट करने के लिए उत्सुक रहता है। ऐसे में किसी धार्मिक संघ के नेता या प्रमुख होते हैं, वे अपने द्वारा मान्य सिद्धान्त को दुनिया में फैलाना चाहते हैं। इसलिए वे अपने द्वारा मान्य मतों को दुनिया में प्रचारित करते और संघ/संगठन का निर्माण करते हैं। जैन आगमों में जैसे सूत्रकृतांग, भगवती, राजप्रश्नीय आदि ग्रन्थ, बौद्ध ग्रन्थों में दीघनिकाय, अंगुत्तरनिकाय, उदान आदि, उपनिषदों में श्वेताश्वतर, मैत्रायणी, बृहदारण्यक आदि तथा वैदिक
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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