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________________ जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद बतलाते हैं। वह कहता है कि बृहस्पति जो अपने सूत्र में चार तत्त्वों को गिनाता है, वे इसलिए नहीं कि वह स्वयं उन तत्त्वों को मानता है। सूत्र में चार तत्त्वों को गिनाने/तत्त्वों की व्याख्या करने की प्रतिज्ञा करने से बृहस्पति का आशय केवल लोकप्रसिद्ध तत्त्वों का निर्देश करना मात्र है। ऐसा करके बृहस्पति यह सूचित करता है कि साधारण लोक में प्रसिद्ध माने जाने वाले पृथ्वी आदि चार तत्त्व भी जब सिद्ध हो नहीं सकते, तो फिर अप्रसिद्ध और अतीन्द्रिय आत्मा आदि तत्त्वों की तो बात ही क्या ? (तत्त्वोपप्लवसिंह, 10, पृ. 1, गायकवाड़ ऑरियण्टल सिरीज, बड़ौदा [ 203 ] ) । जयराशि के उक्त तथ्य के आलोक में यह कहा जा सकता है कि पृथ्वी आदि चार भूत ये लोक प्रसिद्ध तत्त्व थे, किन्तु जरूरी नहीं कि वे चार्वाक के प्रमुख सिद्धान्त सूत्र हों । 68 हरिभद्रसूरि (705-775 ई. सन् ) ने षड्दर्शनसमुच्चय में भी उक्त चार भूतों का उल्लेख किया है किन्तु आकाश का उल्लेख नहीं किया (षड्दर्शनसमुच्चय, 83 [204])। जबकि हेमचन्द्राचार्य ने बृहस्पति और नास्तिक अथवा चार्वाक और लोकायत में अन्तर करते हैं । ' सर्वदर्शन संग्रह के भाष्यकार भी चार भूतों का ही उल्लेख करते हैं (सर्वदर्शनसंग्रह, 1.1 का भाष्य [ 205 ] ) । इन उक्त उल्लेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसी समय चैतन्य या जीव को मात्र भूतों का परिणाम या कार्य मानकर उसके आधार पर जीवन व्यवहार चलाने वालों का प्राबल्य था । शायद उस समय के लोगों में इस विचार की गहरी छाप थी। इसी से आगे जाकर इस मत को 'लोकायत' कहकर एक तरह से इसकी निंदा की गई। कहा जाता है कि बृहस्पति ने जिस स्वकीय दर्शन का उपदेश चार्वाक को दिया, इन्होंने उसका प्रचार मानव समाज में बलपूर्वक किया, जिसका यह फल हुआ कि इनके द्वारा प्रचारित वह बार्हस्पत्य दर्शन लोकायत हो गया । इसलिए वह लोकायत भी कहलाने लगा ।' मैक्समूलर भी इसे चार्वाक ऋषि द्वारा प्रणीत 1. Hemakandra distinguishes between Bârhaspatya or Nâstika, and Kârvâka or Lokáyatika, Maxmüller, Six Systems of Indian Philosophy, [London, 1989], Chowkhambha Sanskrit Series, Varanasi, IV edn., 1971, p. 99. 2. आचार्य आनन्द झा, चार्वाक दर्शन, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान प्रभाग, लखनऊ, 1983, पृ. 8.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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