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________________ पञ्चभूतवाद 67 बी.एम. बरूआ, कात्यायन ( कच्चायन ) की पश्चिमी विचारक एम्पेडोकल्स (Empedocles ) से तुलना करते हुए कात्यायन को भारत का ऐम्पेडोकल्स की संज्ञा देते हैं। इन दोनों में वे बहुत साम्यता दिखाते हैं ।' अन्तर केवल एक बिन्दु पर ही दिखाते कि एम्पेडोकल्स के मामले ये ज्ञात नहीं कि उसने अस्तित्व की योजना में आत्मा के विचार के लिए कोई स्थान छोड़ा हो। कात्यायन के मामले में यह निश्चय है कि उसने विचार किया । 2 इस प्रकार 7वीं ई. शताब्दी के बाद के जैन दार्शनिक साहित्य में सर्वत्र चार भूतों का उल्लेख आया है, जिन्हें चार्वाक दर्शन से अभिहित किया गया है, जो नास्तिक भौतिकवादी भी कहे जाते हैं । तत्त्वोपप्लवसिंह (725 ई. सन्) चार्वाक परम्परा का एकमात्र उपलब्ध मूल ग्रन्थ है, जिसके लेखक जयराशि भट्ट हैं । चार्वाक सिद्धान्त में पृथ्वी आदि चार भूतों का तथा प्रत्यक्ष प्रमाण का प्रमुख स्थान है पर जयराशि इन दोनों ही सिद्धान्त को नहीं मानता है तब भी वह स्वयं को चार्वाक मतानुयायी मानता है। इस बात की पुष्टि में वह बृहस्पति के मन्तव्य के साथ अपने मन्तव्य की असंगति का तर्कपूर्ण समाधान देते हैं। वे कहते हैं कि बृहस्पति जब चार तत्त्वों का प्रतिपादन करता है, तब तुम (जयराशि) तत्त्वमात्र का खण्डन कैसे करते हो ? अर्थात् बृहस्पति परम्परा के अनुयायी के रूप में कम से कम चार तत्त्व तो तुम्हें अवश्य मानने चाहिए । इस प्रश्न के उत्तर में जयराशि अपने को बृहस्पति का अनुयायी बताते हुए अपने को बृहस्पति से एक कदम आगे बढ़ने वाला भी 1. For the Similar Ideas, see, B.M. Barua, A History of Pre-Buddhistic Indian Philosophy, Calcutta, [1st edn., 1921], Reprint by Motilal Banarasidass Publishers Pvt. Ltd., Delhi, 3rd edn., 1998, pp. 284-285. 2. ........The only point of difference between the two thinkers of two distant countries is the case of Empedocles it is unknown whether he left any room for the conception of soul in his scheme of existence, whereas in the case of Kātyāyana it is positive that he did, Barua, Ibid, p. 285. 3. उक्त तिथि जानने के लिए देखिए तत्त्वोपप्लवसिंह, चार्वाक दर्शन का अपूर्वग्रन्थ ( शोध लेख), दलसुख मालवणिया (सं.), दर्शन और चिन्तन (पण्डित सुखलालजी के शोध लेखों का संग्रह), पण्डित सुखलालजी सन्मान समिति, अहमदाबाद, 1957, पृ. 85-86.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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