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________________ 64 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद के सन्दर्भ में चिन्तन करते हैं (सांख्यकारिका, 1 [195])। सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष के अलावा अन्य तेईस कुल पच्चीस तत्त्वों का विधान मिलता है। सांख्य सिद्धान्त पक्ष है योग आचार पक्ष है। ये दोनों पूरे दर्शन के मिश्रित रूप हैं। जो मुक्ति मोक्ष की मान्यता को स्वीकार करते हैं। ऐसी स्थिति में पंचभूत के सन्दर्भ में सांख्य को चार्वाक के साथ गिनना युक्तिसंगत नहीं लगता। संभव है कि उस समय सांख्य दर्शन मानने वाले पंचभूतों को ज्यादा महत्त्व देते होंगे। 2. पंचभूतवाद एवं चारभूतवाद __ जैन आगमों में सर्वप्रथम आचारांग में पंचभूत सिद्धान्त की मान्यताओं के विरुद्ध आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद-इन चार बातों की स्थापना की गई है। वहाँ पुनर्जन्म सिद्धान्त की स्थापना करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि कुछ लोगों को यह ज्ञात नहीं होता मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है, अथवा मेरी आत्मा पुनर्जन्म नहीं लेने वाली है, मैं कौन था? मैं यहाँ से च्युत होकर अगले जन्म में क्या होऊंगा? कोई मनुष्य 1. स्व-स्मृति से, 2. पर-आप्त के निरूपण से अथवा विशिष्ट ज्ञानी के पास सुनकर यह जान लेता है, जैसे-मैं पूर्व दिशा से आया हूं, या पश्चिम, उत्तर व दक्षिण दिशा से आया हूं, अथवा मैं अधो दिशा से आया हूं, या फिर अन्य दिशा व अनुदिशा से। इसी प्रकार कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात होता है-मेरी आत्मा पुनर्जन्मधर्मा है। जो इन दिशाओं और अनुदिशाओं में अनुसंचरण करती है, जो सब दिशाओं और अनुदिशाओं से आकर अनुसंचरण करती है, वह मैं हूं। जो अनुसंचरण को जान लेता है वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है (आचारांगसूत्र, I.1.1.2-5 [196])। __सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में पंचभूतवाद सिद्धान्त को द्वितीय पुरुष के रूप में परिगणित कर कहा गया है कि इस जगत् में पंचमहाभूत है। हमारे मतानुसार जिनसे हमारी क्रिया-अक्रिया, सुकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, साधु-असाधु, सिद्धि-असिद्धि, नरक-स्वर्ग तथा अन्ततः तृणमात्र कार्य भी इन्हीं
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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