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________________ और 118 वर्षों में पाँच एकांगधारी आचार्य हुये, जिनके नाम निम्नप्रकार हैं 1. आचार्य अर्हद्बलि 28 वर्ष 2. आचार्य माघनन्दि 21 वर्ष 3. आचार्य धरसेन 19 वर्ष 4. आचार्य पुष्पदन्त 30 वर्ष 5. आचार्य भूतबलि 20 वर्ष 118 वर्ष इनमें अन्तिम तीन आचार्यों में आचार्य धरसेन ने अपने अवशिष्ट आगमज्ञान को आचार्य भूतबलि और पुष्पदन्त को दक्षिण से बुलाकर प्रदान किया और आगमज्ञान के एक अंगज्ञान को नष्ट होने से बचा लिया। इसप्रकार महावीर स्वामी के पश्चात् 643 वर्षों तक आचार्य-परम्परा चलती रही। इस आचार्य-परम्परा ने जैन-संघ को अपने पारलौकिक ज्ञान से आगे बढ़ाया। इन आचार्यों के पश्चात् ईसा की 14वीं शताब्दी तक महावीर की निर्ग्रन्थ-परम्परा में अनेक आचार्य एवं मुनिगण होते रहे, जिन्होंने अपनी साधना, तपस्या एवं ज्ञान-शक्ति के माध्यम से भारतवर्ष में अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रहवाद के सिद्धांत को प्रचारित किया। इन 643 वर्षों में आगम-शास्त्र के ज्ञाता आचार्यों का बाहुल्य रहा। अनेक बार आगम के ज्ञाता आचार्यों की चर्चायें इतनी गहन व क्लिष्ट होती थीं, जो सामान्यजन के समझ से परे होती थीं। ऐसी स्थिति में सामान्यजन को उपयोगार्थ सीधी-सादी भाषा में लिखे ग्रन्थों की मांग होने लगी। इसकी पूर्ति के लिए विक्रम संवत् की प्रथम सदी में आचार्य गुणधर ने श्रुत का विनाश हो जाने के भय से 'कसायपाहुड' नामक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत-ग्रन्थ प्राकृत-गाथाओं में निबद्ध किया।11 प्राकृत इस युग की जनभाषा थी। इसी युग में पैदा हुये आचार्य कुन्दकुन्द को जैन-आचार्यों में मुख्य स्थान प्राप्त है। ये जैनधर्म के महान् प्रभावशाली आचार्य थे। __आचार्य कुन्दकुन्द ने 84 पाहुड-ग्रन्थों की प्राकृतभाषा में रचना करके एक अभूतपूर्व कार्य किया और देश एवं समाज को, श्रावक एवं श्राविकाओं, मुनियों एवं आर्यिकाओं सभी के लिये उपयोगी साहित्य का सृजन किया। उनके ग्रन्थों की जितनी टीकायें लिखी गईं, उतनी किसी अन्य आचार्य के ग्रन्थों पर नहीं मिलती हैं।12। आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् आचार्य गद्धपिच्छ, उमास्वामी, समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दि, पात्रकेसरी आदि पचासों आचार्य एक के बाद दूसरे होते गये तथा धर्म व संस्कृति को अपने ज्ञान से पल्लवित करते रहे। सातवीं शताब्दी के अकलंक नाम के आचार्य बहुत प्रसिद्ध हुये। ये जैनन्याय के प्रतिष्ठाता थे, तथा प्रकाण्ड पंडित, धुरंधर शास्त्रार्थी और उत्कृष्ट विचारक थे। जैनन्याय को इन्होंने जो रूप दिया, उसे 00 32 भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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