SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 11. महाकल्प्य, 12. पुण्डरीक, 13. महापुण्डरीक, और 14. निषिद्धिका । 'सामायिक' नामक अंगबाह्य में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-सम्बन्धी चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना करने की विधि, उनके नाम, संस्थान, उत्सेध, पाँच महाकल्याणक, चौंतीस अतिशय आदि का वर्णन है। 'वन्दना' नामक अंगबाह्य में एक तीर्थंकर और उस तीर्थंकर - सम्बन्धी जिनालयों, वन्दना करने की विधि एवं फल का चित्रण है। 'प्रतिक्रमण' नामक अंगबाह्य में दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ईर्यापथिक और औत्तमार्थिक इन सात प्रकार के प्रतिक्रमणों का वर्णन आया है। प्रमाद से लगे हुये दोषों का निराकरण करना 'प्रतिक्रमण' है। 'वैनयिक' नामक अंगबाह्य में ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपविनय और उपचारविनय आदि का विशद वर्णन है। 'कृतिकर्म' नामक अंगबाह्य में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु की पूजाविधि का वर्णन है। 'दशवैकालिक' नामक अंगबाह्य में साधुओं के आचार, विहार एवं पर्यटन आदि का वर्णन है। 'उत्तराध्ययन' नामक अंगबाह्य में चार प्रकार के उपसर्ग और बाईस परिषहों के सहन करने का विधान एवं उनके सहन करनेवालों के जीवनवृत्त का वर्णन रहता है। ऋषियों के करने योग्य जो व्यवहार हैं, उस व्यवहार से स्खलित हो जाने पर प्रायश्चित करना होता है। इस प्रायश्चित का वर्णन 'कल्पव्यवहार' में रहता है। 'कल्प्याकल्पय' में साधु और असाधुओं के आचरणीय और त्याज्य व्यवहार का वर्णन पाया जाता है। दीक्षाग्रहण, शिक्षा, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तम क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर 'महाकल्प्य' नामक अंगबाह्य कथन करता है। 'पुण्डरीक' नामक अंगबाह्य में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी एवं वैमानिक-सम्बन्धी देव, इन्द्र, सामानिक आदि में उत्पत्ति के कारणभूत दान, पूजा, शील, तप, उपवास और अकामनिर्जरा का तथा उनके उपपाद-स्थान और भवनों का उत्पत्ति के कारणभूत तप और उपवास आदि का वर्णन है । 'निषिद्धिका' में अनेक प्रकार की प्रायश्चित - विधियों का कथन आया है। - इसप्रकार 'अंगप्रविष्ट' और 'अंगबाह्य' के अन्तर्गत आधुनिक सभी विषयों का समावेश तो होता ही है, साथ ही आध्यात्मिक भावना, कर्मबन्ध की विधि और फल, कर्मों के संक्रमण आदि के कारण, विभिन्न दार्शनिक चर्चायें, मत-मतान्तर, ज्योतिष, आयुर्वेद, गणित, भौतिकशास्त्र, आचारशास्त्र, सृष्टि- उत्पत्ति - विद्या, भूगोल एवं पौराणिक मान्यताओं का परिज्ञान भी उक्त श्रुत या आगम से प्राप्त होता है। आगम का यह विषय - विस्तार इतना सघन और विस्तृत है कि इसकी जानकारी से व्यक्ति श्रुतकेवली - पद प्राप्त करता है। ज्ञान या आगम के विषय का परिज्ञान किसप्रकार और किस विधि से सम्भव होता है. • इसका वर्णन भी पूर्वोक्त आगमग्रन्थों में आया है— - OO 28 भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy