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________________ पंजाब - प्रदेश में भट्टारक, जिनचन्द्र, प्रभाचन्द्र एवं शुभचन्द्र ने विहार किया था और अंहिसा-धर्म का प्रचार किया था। संवत् 1723 में लाहौर में खड्गसेन कवि ने 'त्रिलोकदर्पण कथा' की रचना की थी । लामपुर (लाहौर) में जिन - मन्दिर था, वे वहीं बैठकर धार्मिक चर्चा किया करते थे। 47 सन् 1981 की जनगणना के अनुसार इन प्रदेशों में जैनों की संख्या निम्नानुसार थी 48 1. 2. 3. 4. राज्य का नाम पंजाब हरियाणा चंडीगढ़ जम्मू-कश्मीर 00 18 जनसंख्या 27049 35482 1889 1576 दक्षिण भारत में भी जैन-धर्मानुयायी पर्याप्त संख्या में पाये जाते हैं। ऐसा वृत्तान्त मिलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में उत्तर - भारत में 12 वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ने पर जैनाचार्य भद्रबाहु ने अपने विशाल जैन संघ के साथ दक्षिण भारत की और प्रयाण किया था। इससे यह बात स्पष्ट होती हैं कि दक्षिण-भारत में उस समय भी जैनधर्म का अच्छा प्रसार था और भद्रबाहु को पूर्ण विश्वास था कि वहाँ उनके संघ को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। यदि ऐसा न होता, तो वे इतने बड़े संघ को दक्षिण भारत की ओर ले जाने का साहस नहीं करते | 49 साथ ही यह बात भी उल्लेखनीय है कि जैन संघ की इस यात्रा ने दक्षिण-भारत में जैनधर्म को मजबूती प्रदान की थी। प्रो. रामस्वामी आयंगर लिखते हैं " सुशिक्षित जैन साधु छोटे-छोटे समूह बनाकर समस्त दक्षिण भारत में फैल गये और दक्षिण की भाषाओं में अपने धार्मिक साहित्य का निर्माण करके उसके द्वारा अपने धार्मिक विचारों को धीरे-धीरे, किन्तु स्थायीरूप में जनता में फैलाने लगे। किन्तु यह कल्पना करना कि 'ये साधु साधारणतया लौकिक-कार्यों में उदासीन रहते थे', गलत है। एक सीमा तक यह सत्य है कि ये संसार में संलग्न नहीं होते थे। किन्तु मेगस्थनीज के विवरण से हम जानते हैं कि ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी तक राजा लोग अपने दूतों द्वारा वनवासी जैन श्रमणों से राजकीय मामलों में स्वतंत्रतापूर्वक सलाह-मशवरा करते थे। जैन- गुरुओं ने राजवंशों को आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन प्रदान किया था, और वे राज्य शताब्दियों तक जैनधर्म के प्रति सहिष्णु बने रहे। किन्त जैनधर्म-ग्रन्थों में रक्तपात के निषेध पर जो अत्यधिक जोर दिया गया, उसके कारण समस्त जैन-जाति राजनीतिक उन्नति नहीं कर सकी । "50 जैनधर्म के विस्तार की दृष्टि से दक्षिण भारत को दो भागों में बाँटा जा सकता है - तमिलनाडु तथा कर्नाटक । तमिलनाडु में जैनधर्म प्राचीनकाल से ―― भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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