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________________ जैन - परम्परा में ऋषभदेव को समाज में वर्ण-व्यवस्था का संस्थापक माना गया है। एक विद्वान् ने लिखा है कि " भगवान् ऋषभदेव ने समाज को तीन वर्णों में विभाजित किया था, लेकिन उनके पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् भरत ने इसमें एक वर्ण और जोड़ा और चौथे ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। सम्राट् भरत चाहते थे कि 'जो अणुव्रतों के पालन करने में आगे रहते हैं, श्रावकों में श्रेष्ठ हैं, ऐसे व्यक्तियों को दान देने से पुण्य लाभ होता है, तथा गुणों की वृद्धि होती है।' इसलिए ऐसे व्यक्तियों को दान देने के लिए चक्रवर्ती सम्राट् भरत ने उन्हें 'ब्राह्मण' के नाम से सम्बोधित किया और एक नये वर्ण की स्थापना की। व्रतों के संस्कार से 'ब्राह्मण', शस्त्र धारण करने से ‘क्षत्रिय', न्यायपूर्वक धन कमाने से 'वैश्य' तथा सेवावृत्ति का आश्रय लेने से 'शूद्र' कहलाये गये। लेकिन जब ऋषभदेव को चतुर्थ-वर्ण-स्थापना का समाचार स्वयं चक्रवर्ती सम्राट् भरत ने निवेदन किया, तो उन्होंने भरत के उक्त कदम की सराहना नहीं की। सम्राट् ने एकबार जो घोषणा कर दी, उस घोषणा को वापिस लेने में उनकी अकुशलता का बोध होता । इस कारण उन्होंने यही कहा कि " जिनकी सृष्टि की जा चुकी है, उन्हें नष्ट करना ठीक नहीं। "14 ऋषभदेव के सन्दर्भ में उपलब्ध जानकारियों से यह तो स्पष्टरूप से कहा जा सकता है कि वे एक पुराण- पुरुष थे। अनेक साक्ष्यों से यह स्पष्टरूप से स्थापित हो चुका है कि ऋषभदेव प्रथम जैन तीर्थंकर थे। वे ही इस युग में जैनधर्म के संस्थापक थे। अन्य जैन तीर्थंकर जैन - - परम्परा में चौबीस तीर्थंकरों को 'धर्म का संस्थापक' माना गया है। ऋषभदेव के पश्चात् अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दन, सुमतिनाथ, पदमप्रभु, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभु, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ ( अरिष्टनेमि), पार्श्वनाथ एवं महावीर स्वामी हुये । प्रथम 21 तीर्थंकर प्रागैतिहासिक काल के माने जाते हैं। उन्हें पौराणिक महापुरुष भी माना जाता है। अन्तिम तीन तीर्थंकर पूर्णत: ऐतिहासिक माने जाते हैं। प्रथम 21 तीर्थंकर ने ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित धर्म के स्वरूप, उसके पालन करने की विधि, गृहस्थधर्म, मुनिधर्म, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह जैसे सिद्धांतों को जीवन में उतारने व तदनुसार जीवन को ढालने का उपदेश दिया। उन्होंने जीवन को निवृत्तिपरक बनाने पर जोर दिया, तथा त्यागमय जीवन का निर्वाह करने पर बल दिया। इनके अनुसार राग, द्वेष, मोह, ममता • ये सब जीवन के विकार हैं, जीवन का विनाश करने वाले हैं, इसलिये वे सब त्याज्य हैं। 15 - तीर्थंकर नेमिनाथ नेमिनाथ 22वें जैन तीर्थंकर थे। जैन - मान्यतानुसार नेमिकुमार कर्मयोगी कृष्ण भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ 007
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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