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________________ उद्यान में ध्यानस्थ थे। उस समय उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इस तरह 'जिन' पद प्राप्त करके भगवान् बड़े भारी समुदाय के साथ धर्मोपदेश देते हुए विचरण करने लगे। उनकी व्याख्यानसभा 'समवसरण' कहलाती थी। उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसमें पशुओं तक को धर्मोपदेश सुनने के लिये स्थान मिलता था, और सिंह जैसे भयानक जन्तु शान्ति के साथ बैठकर धर्मोपदेश सुनते थे। भगवान् जो कुछ कहते थे, सबकी समझ में आ जाता था। इस तरह जीवन-पर्यन्त प्राणिमात्र को उनके हित का उपदेश देकर भगवान् ऋषभदेव कैलाश पर्वत से मुक्त हुए। वे वर्तमान 'अवसर्पिणी काल' के जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर थे। हिन्दू-पुराणों में भी उनका वर्णन मिलता है। इस युग में उनके द्वारा ही जैनधर्म का आरम्भ हुआ।"10 उपरोक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैन-परम्परा में ऋषभदेव को एक 'दिव्य-पुरुष' एवं 'भगवान्' माना गया है। इस परम्परा में इन्हें 'आदिब्रह्मा' माना गया है। इसी भारतीय परिवेश में पुष्पित और पल्लवित होने के कारण जैनधर्म और वैदिकधर्म में समानता दिखाई देती है। जिसप्रकार हिन्दूधर्म में आदिपुरुष 'ब्रह्मा' को सृष्टि का कर्ता माना गया है, उसी प्रकार जैनधर्म में ऋषभदेव को 'आदि-ब्रह्मा' के रूप में माना गया है। सनातन हिन्दू-संस्कृति में ब्रह्मा, विष्णु और महेश को क्रमशः सृष्टि का सृजनकर्ता, पालक व विनाशक का प्रतीक माना गया है। विशाल दृष्टि से विचार करने पर जिसप्रकार नित्य-परिवर्तनशील वस्तु में एकसाथ ये तीनों गुण पाये जाते हैं, उसीप्रकार भगवान ऋषभदेव में ब्रह्मा, विष्णु और महेश के तीनों गुण एकसाथ मिलते हैं। जैनाचार्य जिनसेन ने ऋषभदेव को ब्रह्मा एवं शिव-स्वरूप में स्वीकार किया है। इस सम्बन्ध में जिनसेन रचित 'हरिवंश-पुराण' का यह श्लोक उल्लेखनीय है— "त्वं ब्रह्मा परमज्योति स्वत्वं प्रभिष्णु-राजोरजाः। त्वमादिदेवो देवानाम् अधिदेवो महेश्वरः॥11 अर्थात् हे ऋषभदेव! आप ब्रह्मा हैं, परमज्योति स्वरूप हैं, समर्थ हैं, पापरहित हैं, प्रथम तीर्थंकर हैं, और देवों के भी अधिदेव महेश्वर (शिव) हैं। __वैदिक-परम्परा ऋषभदेव को विष्णु का रूप भी मानती है।12 वैदिक-संस्कृति में विष्णु के चौबीस अवतार माने गये हैं। ये रूप जीवन के उत्तरोत्तर विकास के अद्भुत उदाहरण हैं। इन अवतारों में पशु, पशु-नर, अपूर्ण-नर एवं पूर्ण-नर का सर्वांगीण विकास समाहित है। 'भागवत-पुराण' के पंचम स्कंध एवं वेदों में नाभि-पुत्र ऋषभदेव को विष्णु का अवतार माना है। विष्णुपुराण, मार्कण्डेयपुराण, प्रभाषपुराण, ऋग्वेद, शिवपुराण आदि में भी 'ऋषभदेव को जैनधर्म का प्रथम तीर्थंकर' माना गया है। इसप्रकार आदि-ब्रह्मा के साथ ऋषभदेव सृष्टि के संरक्षक भी माने गये हैं। 006 भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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