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________________ मंगल-आशावचन “ आत्मानं स्नापयेन्नित्यं ज्ञानवारिणा चारुणा । येन निर्मलतां याति जनो जन्मान्तरेष्वपि।” अर्थ :- अपनी आत्मा को नित्यप्रति मनोहारी ज्ञानरूपी जल से स्नान कराते रहना चाहिये। इसके प्रभाव से व्यक्ति जन्मान्तरों तक निर्मलता को प्राप्त करता रहता है, अर्थात् निर्मल बना रहता है। संसार में प्राणी अनादिकाल में कर्ममल में मलिन हुआ चार गति चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है। मोह के प्रभाव से उसे अपने हित का मार्ग दिखायी नहीं देता है। संसार की स्थिति बड़ी विचित्र है। अनेक प्रकार के संयोग-वियोग चलते रहते हैं। इष्ट-वियोग और अनिष्ट - संयोग होने पर जीव अनेक प्रकार के संक्लेश- युक्त परिणाम करके दुःखी होता है। ऐसे विरले ही जीव होते हैं, जो इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोग होने पर भी अपने ज्ञान और विवेक को जागृत रखते हुये विचलित नहीं होते हैं, और तत्त्वस्वरूप विचारकर धैर्य धारण करते हुये अपना इहलोक और परलोक सफल बनाते हैं। विपरीत परिस्थिति में भी धैर्य धारण करने वाले मनुष्यों को विद्वान् लोग 'महात्मा' कहते हैं—“ अहो हि धैर्यं महात्मनाम्।” इसी धैर्य और विवेक के बल पर वे संयोग-वियोग - जन्य संक्लेश को जीतकर मनुष्यभव को सार्थक बनाते हैं। वास्तव में ज्ञान ही एक ऐसा अमृत-तत्त्व है, जो व्यक्ति को सम्पूर्ण संक्लेशों से दूर कर उन्नति के मार्ग पर समर्पित करता है । धर्मानुरागी श्री त्रिलोकचन्द जी कोठारी ने अपने दो युवा-पुत्रों का वियोग सह कर भी अत्यन्त धैर्य और विवेकपूर्वक अपने आपको इस वृद्धावस्था में युवकोचित उत्साह के साथ ज्ञानाराधना के पथ पर समर्पित किया, और कोटा विश्वविद्यालय से जैनदर्शन में पी-एच.डी. की शोध - उपाधि अर्जित कर अनेक लोगों के लिए एक अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया। अब उनका यह शोध कार्य पुस्तकाकार रूप में क्रमशः प्रकाशित होने जा रहा है, इस निमित्त मेरा बहुत - बहुत मंगल - आशीर्वाद है। श्रुतपंचमी पर्व, 27 मई 2001 भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ - आचार्य विद्यानन्द मुनि 00 xi
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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