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________________ ४८ अलबेली आम्रपाली महादेवी बोली--"आचार्यजी ! आप निश्चित रहें । एकाध महीने में वैसी कन्या खोज लूंगी।" "धन्यवाद ! ऐसा होने पर एक महान् सिद्धि का साक्षात्कार होगा।" कहकर अग्निपुत्र खड़े हुए। राजा-रानी ने आचार्य को नमस्कार किया और आचार्य अपने आश्रम की ओर चले गये। आचार्य के जाने के बाद रानी ने मगधेश्वर से कहा-"प्राणनाथ ! अब आप निश्चितता से सोएं।" इधर आकाश मेघाच्छन्न हो रहा है । आज रात को वर्षा का प्रारम्भ होगा ऐसा प्रतीत हो रहा था। संध्या हो गई थी। कुमार बिंबिसार अपने साथियों के साथ आठ कोस दूर निकल गया था। वहां सब एक छोटे से गांव में जा पहुंचे। धनंजय बोला-"कुमारश्री। रात हमको यहीं बितानी पड़ेगी।" "हां, किन्तु धनंजय ! तुझे एक बात का ख्याल रखना होगा।" "कौन-सी बात का?" "मैं राजकुमार हूं, महाराज हूं-यह सब विस्मृत कर देना होगा। हम सब प्रवासी हैं । हमें जहां उचित लगेगा वहां रहेंगे। और जहां जाना होगा वहां जाएंगे।" "परन्तु...।" "मित्र, मैं मगध का राजकुमार हूं, इसे जतला कर हमें कोई लाभ तो नहीं कमाना है।" "जैसी आपकी आज्ञा।" धनंजय ने कहा। गांव छोटा था। पर मगध राज्य के प्रत्येक छोटे-बड़े गांव में पान्थशाला होती थी। वे सब एक छोटी-सी पान्थशाला में गए, ठहरे। धनंजय ने भोजन की व्यवस्था की। रात के दूसरे प्रहर में मूसलाधार वर्षा होने लगी। कहां तो राजभवन का राजसी भोजन और कहां इस गांव का सीधा-सादा भोजन । फिर भी बिंबिसार ने उस भोजन में पूरा रस लिया और भोजन करतेकरते धनंजय से कहा-"मित्र ! जहां सादगी है, वहां वास्तविक आनन्द है और जहां आवश्यकताओं की अधिकता होती है, वहां वेदना भी प्रबल होती है।" अभी कुमारश्री ने अपने बीस वर्ष पूरे नहीं किये थे। ऐसे वचन सुनकर धनंजय आश्चर्यचकित रह गया। इस पांथशाला में न स्वर्णमय पलंग थे, न मसृण शय्या थी और न रेशमी
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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