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________________ ३६ अलबेली आम्रपाली अभिव्यक्ति दे और तीनों ग्रामों पर वीणावादिनी देवी सरस्वती की आराधना कर।" बिंबिसार ने अपनी महाबिंब वीणा को एक ओर रखा। गुरु को पहले नमस्कार कर, फिर देवी सरस्वती की प्रतिमा के समक्ष तीन बार भूमि पर सिर टिकाकर नमस्कार किया। आचार्य कार्तिक एक ओर बैठ गये। बिंबिसार ने अपनी वीणा हाथ में ली; मन में देवी सरस्वती का स्मरण कर सुहासिनी विग्रह की ओर देखा। गोघृत का एक दीपक जल रहा था। फिर भी देवी की मूर्ति प्रकाशमय बन गई थी। उन्नीस वर्ष का राजकुमार बिंबिसार कुछ ही समय में वीणा का स्वरमिलान कर सरस्वती देवी की प्रिय राग 'वागेश्वरी' की आराधना करने लगा। रात्रि का दूसरा प्रहर बीत गया। मन्थर गति से वीणा के तारों पर नाचता हुआ वागेश्वरी राग सम्पूर्ण नीरव वन प्रदेश में फैल गया। मृदंग पर ताल देने वाले वाद्य की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि महाबिंब वीणा से ताल स्वयं जागृत होकर बाहर आता था। सिद्ध वीणावादक ताल से बंधा हुआ नहीं होता, ताल उससे बंधा हुआ होता है। बिंबिसार एक घटिका पर्यन्त एक ही ग्राम पर राग को मंथर गति से चलाता मध्य रात्रि के समय उसने वीणा पर दो ग्राम प्रारम्भ किए । वातावरण आनन्द से तरंगित हो गया। यह सरस्वती का रचा हुआ स्वतन्त्र राग था । जब यह राग मध्यम लय में पाया तब समग्र वातावरण रस से तर-बतर हो गया। आचार्य कार्तिक हर्ष-विभोर हो रहे थे। अपने शिष्य के कौशल पर वे सात्विक उल्लास से भर गये। उनके हृदय से अजस्र धन्यवाद की वर्षा होने लगी। तीसरे प्रहर की दो घटिकाएं शेष थीं। रात्रि का उत्तरकाल प्रारम्भ हो चुका था और बिंबिसार की सिद्धि तीनों ग्रामों पर मूर्त हो गई। बिबिसार उस समय अपने आपको भूल गया था। जब तक सिद्ध साधक' साधना में अपना अस्तित्व विस्मृत नहीं कर देता तब तक सिद्धि की सार्थकता नहीं होती। वीणा पर दो ग्रामों को झंकृत करने वाले अल्प होते हैं, तब तीन ग्रामों को साधने वाले साधक की तो बात ही क्या?
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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