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________________ अलबेली आम्रपाली २५ है। बिंबिसार को किसी भी बहाने देश से निर्वासित कर दें। इस कार्य में किसी भी प्रकार की कृत्रिमता न दिखे।" ___ "क्या मतलब ?" "रानी त्रैलोक्यसुंदरी को यह स्पष्ट प्रतीत होने लगे कि आपने यह कार्य अपने वचन को निभाने के लिए किया है और श्रेणिक को भी यह आभास नहीं होना चाहिए कि आपने कृत्रिम रोष किया है । सबको यह कदम यथार्थ लगना चाहिए।" प्रसेनजित स्थिरष्टि से आचार्य की ओर देखते रहे । आचार्य ने योजना के परिणाम की भी जानकारी दी और प्रसेनजित की सारी चिन्ता एक भव्य आशा में परिणत हो गई। ५. लोक्यसुन्दरी आचार्य अग्निपुत्र से मिलकर जब मगधेश्वर प्रसेनजित विशाल राजभवन में आए तब वाद्य-मंडली विविध वाद्यों से प्रभात का अभिनंदन कर रही थी। महाराज प्रसेनजित जब राजभवन से रात्रि में बाहर निकले थे, तब यह ध्यान रखा गया था कि उनके गमन का किसी को भी भानं न हो । किन्तु अर्ध घटिका के बीतने पर रानी त्रैलोक्यसुन्दरी ने जान लिया कि महाराज कहीं बाहर गए हैं । इस रात्रि वेला में वे कहां गए-यह प्रश्न रानी के मन में घूम रहा था। वह यह जानती थी कि अन्यान्य रानियों को बताएं या नहीं, मगधेश्वर अन्यत्र जाते समय उसे बताकर ही जाते हैं। जैसे राज्य बड़ा होता है, अन्तःपुर विशाल, वैभव-प्रचुर और परिवार बड़ा होता है, वैसे ही प्रश्न भी अनन्त बन जाते हैं। रानी रैलोक्यसुन्दरी प्रौढ़ अवस्था में थी, किन्तु उसका शरीर सुगठित, आकर्षक और स्वस्थ ही नहीं था, पर वह चिरयौवना के समान तेजस्वी और सुन्दर भी थी। उसका मूल नाम 'तिलका' था। वह एक गरीब क्षत्रिय की पुत्री थी । उसे राजरानी का गौरव और सुख मिलेगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। किन्तु एक बार महाराज प्रसेनजित शिकार के लिए गए और जंगल में भटक गए। वहां तिलका का संयोग मिला। वह राजा के नयनों में और हृदय में बस गई । राजा ने तत्काल उसके साथ विवाह कर लिया। और उससे उत्पन्न पुत्र को राजगद्दी मिलेगी, ऐसा वचन देकर उसे राजभवन में ले आए। वहां उसका नाम त्रैलोक्यसुन्दरी रखा। प्रसेनजित के और भी अनेक रानियां थीं। किन्तु उसका कामातुर मन केवल त्रैलोक्यसुन्दरी से ही संतुष्ट होता था। इसका परिणाम यह हुआ कि राजभवन में त्रैलोक्यसुन्दरी का वर्चस्व बढ़ गया। उसके वचन को झेलने के लिए महाराज ही नहीं, मंत्री, दास-दासी तथा अन्य रानियां भी तत्पर रहती थीं।
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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