SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ अलबेली आम्रपाली _ "हां, गुरुदेव ! इसलिए मैं यहां आया हूं। आप किसी भी उपाय से मगध की सुरक्षा करें। महारानी त्रैलोक्यसुंदरी का पुत्र स्वभाव से अत्यन्त क्रूर है । वह भी अभी सोलह वर्ष का ही हुआ है, परन्तु वह सुरा और सुन्दरी के स्वप्न ही देखता रहता है। ऐसे नालायक के हाथों में मगध की जनता का भविष्य कैसे सौंपा जा सकता है ?" आचार्य अग्निपुत्र मर्म भरे हास्य से बोले-"महाराज ! किसी को भी वचन देते समय पूरा विचार करना आवश्यक होता है। आप उत्तम हैं, वीर हैं। किन्तु कमनीय कान्ताओं के साथ व्यवहार करने में आप अपने गौरव को विस्मृत करते रहे हैं।" ___आपकी बात सही है। मेरे जीवन का यह बड़ा दोष है। इसी दोष के कारण मगध साम्राज्य का स्वप्न भी सिद्ध नहीं हुआ। वैशाली गणतंत्र को पैरों तले रौंदने और उसको धूल चटाने की शक्ति होते हुए भी, मैं कुछ नहीं कर सका। अब तो जीवन का उत्तरार्द्ध प्रारंभ हो गया है। मगध की जनता को सर्वश्रेष्ठ संचालक मिले, यही मेरी कामना है। मेरी इस कामना को केवल श्रेणिक ही सफल कर सकता है और उसके जीवन को किसी भी प्रकार की आंच न आये, इसी उपाय की खोज में मैं आपके पास आया हूं।" "क्या बिंबिसार को वीणा अतिप्रिय है ?" "हां, किन्तु वह बुद्धि, चातुर्य, शौर्य, प्रभाव, ज्ञान आदि में भी अजोड़ है। मेरे अन्य पुत्रों को सुरा और सुंदरी का नाज है । इसको केवल वीणा में ही आनंद आता है। इसके अतिरिक्त इसमें कोई व्यसन नहीं है।" ___"महाराज! मैंने जो भविष्यवाणी की है वह सही उतरेगी। सांप मरे और लाठी भी न टूटे, इस दृष्टि से आज मैं एक सुन्दर उपाय बताता हूं" । आचार्य ने कहा। "आप हमेशा मेरे पर उपकार करते रहे हैं।" "नहीं, महाराज ! आपकी छत्रछाया में मैं रहता हूं। मेरे प्रयोगों में आपने प्रचुर धनराशि दी है। उपकारी तो आप हैं । मैं तो केवल आपके कल्याण के लिए कार्य करता हूं"। आचार्य अग्निपुत्र ने भाव भरे स्वरों में कहा। ____ महाराज प्रसेनजित आचार्य की भावभरी आंखों को देखते रहे । आचार्य ने अपने शिष्य की ओर संकेत किया। शिवकेशी बाहर चला गया। फिर आचार्य बोले-"महाराज ! बिंबिसार के हित के लिए आपको कुछ कष्ट सहना होगा !" "सह लूंगा।" "तो आपकी इच्छा अवश्य ही पूरी होगी। आपको मात्र एक काम करना
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy