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________________ अलबेली आम्रपाली २६१ "धनंजय ! वैशाली का मार्ग लम्बा है। चार दिन अधिक लगेंगे और आम्रपाली से मिलने के पश्चात् वहां कितना रुकना पड़े, यह कहा नहीं जा सकता। कर्त्तव्य को प्रथम स्थान देना अपना काम है।" "तो..." "हम एक सैनिक को वैशाली भेजेंगे. 'मैं एक पत्र भी लिखूगा और उसमें राजगृही के समाचार ज्ञात करा दूंगा।" धनंजय तत्काल बोल उठा-"यह विचार उचित है । देवी अपना प्रत्युत्तर राजगृही भेज सकेंगी।" ___ लगभग बीस कोस चलने पर वे एक मध्यम ग्राम की पांथशाला में रात बिताने ठहरे। वहां से पांच कोस की दूरी पर ही वैशाली की ओर जाने वाला एक मार्ग था और दुसरा मार्ग बहुत दूरी पर था। यह मार्ग निरापद नहीं था और पहला मार्ग राजमार्ग होने के कारण निरापद माना जाता था। उज्जयिनी और वैशाली का सारा व्यवहार इसी मार्ग से होता था। इसीलिए बिंबिसार ने एक संदेश तैयार किया । उसने लिखा... "प्राणाधिक पाली ! अनेक दिन बीत गए । तेरी ओर से कोई समाचार नहीं मिले । अपनी पद्मरानी अत्यन्त स्वस्थ और मनोहर होगी। मेरी ओर से उसे प्यार' 'प्यार और प्यार। प्रिये ! आज मैं उज्जयिनी से राजगृही जा रहा हूं। मगधेश्वर शय्यापरवश हो गए हैं और मुझे तत्काल बुला भेजा है। राजगृही में मेरा रहना कितने दिन का होगा, मैं कह नहीं सकता परन्तु जव तक मेरा दूसरा सन्देश न मिले तब तक तुम राजगृही को ही सन्देश भेजना। ___मैंने पूर्व पत्र में विस्तार से सारी बात बताई थी। परन्तु तेरी ओर से उसका कोई उत्तर नहीं मिला। जैसे चातक आशा के गीत के सहारे आतुर होकर मेघ की प्रतीक्षा करता है, वैसे ही मैं निरन्तर प्रतीक्षा करता रहा हूं। मेरा हृदय तेरे ही पास है। ऐसे तो मैं उज्जयिनी से सीधा तेरे पास आ जाता और फिर राजगृही जाता, परन्तु मुझे वहां शीघ्र पहुंचना हैं इसलिए अन्तर की भावना को कर्तव्य की सांकल से जकड़ कर रखना पड़ा है। प्रिये ! तेरे मुखंचन्द्र से छलकता तेज, अमृत और सौन्दर्य को मैं क्षण भर के लिए भी नहीं भुला पाता । जीवनभर मैं इसे नहीं भूल पाऊंगा । मानव का प्रथम प्रेम वज्र की रेखा के समान होता है। मेरा सन्देशवाहक यह पत्र तुमको देगा। उसी के साथ तुम प्रत्युत्तर भेज
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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