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________________ अलबेली आम्रपाली २३६ "जी" क्या आज्ञा है ?" "दो दिन तव विश्राम कर तू लौट सकेगा ?" "हां, महाराज !" " अच्छा दो दिन बाद आकर मुझसे मिलना।” कहकर बिंबिसार ने उस नलिका को खोलना प्रारम्भ किया । सन्देशवाहक नमन कर चला गया । दामोदर बोला - "महाराज ! भोजन का थाल आ गया है ।" "अभी आ रहा हूं।" कहकर बिबिसार ने प्रियतमा द्वारा लिखा पत्र नलिका से बाहर निकाला | मोती जैसे स्वच्छ अक्षर ! उसने पत्र पढ़ लिया पुनः पढ़ा आम्रपाली ने लिखा था - " प्राणवल्लभ ! प्राणों से भी अधिक प्राणेश्वर ! मेरी आशाओं के अमृत, चरणों में आम्रपाली का नमन ! विरह की अग्नि से शुष्क और रसहीन बनी हुई पृथ्वी जैसे मेघ की आशा में आकाश के सामने भान भूलकर देखती रहती है, वैसे ही मैं भी आपके संदेश की प्रतीक्षा कर रही थी । पृथ्वी के लिए जैसे ग्रीष्म ऋतु अत्यन्त दुःखकारक होता है वैसे ही आपका वियोगकाल मेरे लिए उतना ही दुःखदायक हो गया है। ऐसे परिताप वाले समय में आपका पत्र प्राप्त होना, मेरे प्राणों में नया अमृत भरना है । प्राणेश ! वियोगिनी नारी का अभिनय मैंने अनेक बार किया है । परन्तु वियोगिनी नारी की आन्तरिक अनुभूति की वेदना को तो मैंने आपसे विमुक्त होने के पश्चात् ही भोगा है। कितनी भयंकर वेदना ! इस वेदना को न कवि अपने काव्य में अभिव्यक्ति दे पाता है और न अनुभवी व्यक्ति अपने इस वेदनामय अनुभव को शब्दों में उतार पाता है । तो मैं कैसे उसको दिखाऊं ? यदि हृदय भेजा जा सकता तो मैं इस संदेशवाहक के साथ वेदना से आप्लावित अपना हृदय बाहर निकालकर भेज देती और तब आप मेरी अन्तर् व्यथा को देख पाते'' 'परन्तु लाचार हूँ । आप उज्जयिनी पहुंच गए हैं और दीपमालिका तक वहीं रहेंगे, यह ज्ञात हुआ, परन्तु आप यहां आ सकते हैं । षड्यंत्र का पता लग गया है। आप सर्वथा निर्दोष हैं, यह सबको निश्चय हो चुका है। आपके जाने के पश्चात् शीलभद्र की मृत्यु हुई और यह कार्य किसी विषकन्या का ही था विषकन्या कौन है, इसका पता नहीं लग पाया है परन्तु वह अपना कार्य कर यहां से पलायन कर गयी, ऐसा माना जाता है । आपके लिए वैशाली निष्कंटक बन गयी है । आप शीघ्र यहां
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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