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________________ १०४ अलबेली आम्रपाली आचार्य ने मगधेश्वर से कहा-"महाराज ! आपके शत्रु अब अवश्य ही नष्ट हो जाएंगे। कादंबिनी की आंखों में मैंने चतुराई भी देखी है। वह एक वेश्या के यहां पली-पुसी है, इसलिए उसमें दूसरों को आकृष्ट करने के अनेक गुण विद्यमान हैं।" ___ "किंतु यह मुझे एक कोमल कली-सी लगती है ऐसी सुकुमार कन्या-रत्न को आप विषाक्त।" बीच में ही आचार्य हंसकर बोले-"महाराज ! कर्त्तव्य के समक्ष अनुरक्ति को छोड़ना ही पड़ता है।" रानी ने महाराज के भावों को भांप लिया था। उसने मन-ही-मन सोचा, यदि मैं कल इस कन्या को मगधेश्वर के समक्ष ला देती तो परिणाम कुछ और ही आता। ___ लगभग दो घटिका पर्यन्त आचार्य और मगधेश्वर के बीच वार्तालाप होता रहा। कादंबिनी के तैयार होने के समाचार मिलते ही आचार्य उठ खड़े हुए। उन्होंने कादंबिनी को अपने रथ में बिठाया और वे आश्रम की ओर रवाना हो गए। ___ कादंबिनी इन सभी लोगों से अपरिचित थी। और एक महान् राजपरिवार के बीच आ जाने के कारण वह कल्पना के झूले में झूलने लगी। वह अत्यंत बुद्धिमती थी। जब वह पांच वर्ष की थी तब वह एक सार्थवाह के साथ चंपा नगरी में आई थी। वह बचपन से बीमार रहती थी। इसलिए सार्थवाह ने ऊबकर उसको चंपानगरी की प्रसिद्ध वेश्या के यहां मात्र बीस स्वर्ण मुद्राओं में बेच डाला था। कादंबिनी को और कुछ भी स्मृति नहीं थी। अपने माता-पिता कौन थे? . सार्थवाह उसे कहां से उठा लाया था—ये सारी बातें उससे अज्ञात थीं। वह चंपानगरी के वेश्या भवन में आई। मुख्य वेश्या ने उसे पुत्री मानकर उसकी चिकित्सा करवाई । वह रोगमुक्त हो गई। फिर वेश्या ने उमे नृत्य, संगीत और वेश्या-जीवन की शोभा रूप कामकला का शिक्षण दिया। धीरे-धीरे वह इन सारी विद्याओं में निष्णात हो गई । वेश्या को इससे बड़ी-बड़ी आशाएं थीं। और जब वह चौदह वर्ष की हुई, तब पालक वेश्या ने अनेक स्वर्णिम स्वप्न संजोए । वह उसे वेश्या-जीवन में प्रवेश करने की कलाएं सिखाने लगी। किंतु कादंबिनी केवल नर्तकी मात्र होना चाहती थी। वेश्या धंधा उसे नरक-सा लगता था। ___एक दिन पालक-वेश्या ने कहा--"बेटी ! रूप के प्यासे जितना धन देते हैं, उतना धन नृत्य को देखने वाले कभी नहीं देते और धन जीवन का सर्वस्व है, सार है।" वह बोली-"मां ! धन जीवन का सार नहीं, केवल उपयोगिता है। उसके लिए रूप और यौवन को बेचना नारी के लिए भयंकर अभिशाप है।"
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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