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________________ अलबेली आम्रपाली ९७ पुलकित दो हृदय और वे भी अपरिचित । कुमार ! ऐसे समय में 'रंगहिंडोल' राग ही अच्छा रहेगा।" ___'रंगहिंडोल !' रति का प्रिय राग ! राधा का प्रिय राग ! वासली का प्रिय राग ! बिंबिसार ने मन-ही-मन सोचा, यह नवयौवना राग-विज्ञान से अपरिचित हो, ऐसा नहीं लगता किन्तु ऐसा मस्ती भरा राग तो प्रिया और प्रियतम के बीच ही शोभित होता है। वीणावादन प्रारम्भ हुआ। रंगहिंडोल राग से सारा वातावरण आप्लावित हो गया । अभी तो राग का प्रारम्भ ही था। फिर भी आम्रपाली ने अनुभव किया कि उसके समर्थ वीणावादक आचार्य पद्मनाभ भी राग का यह माधुर्य उत्पन्न करने में समर्थ नहीं थे। आधी घटिका बीत गयी। आम्रपाली के नयनों में क्रीड़ा करने वाली परिहासप्रियता स्वतः लुप्त हो गयी। उसने श्रद्धाभरी तथा उन्मत्त दृष्टि से कलाकार की ओर देखा। काल बीत रहा था। वीणा पर बजने वाली दो ग्राम की मस्ती अनोखी थी। आम्रपाली का हृदय घनघनाहट कर रहा था। बिंबिसार की आंखें बन्द थीं। दूसरी अर्ध घटिका भी बीत गयो। अरे यह क्या ? तीन ग्राम पर स्वरान्दोलन ? आम्रपाली उठ खड़ी हुई। उसके रक्त के कण-कण में व्याप्त नृत्य अपने आप जागृत हो गया। आम्रपाली ने समय, स्थल और संयोग का विचार किए बिना ही नर्तन प्रारम्भ कर दिया। परों में धुंघरू नहीं थे। कमर में कटिमेखला नहीं थी । नृत्य के अलंकार भी नहीं थे । नृत्य का परिवेश भी नहीं था। नृत्यभूमि भी नहीं थी। रंगमंच भी नहीं था। दृश्यविधान भी नहीं था। __ इतना न होते हुए भी अन्तर का नृत्य बाहर फूट पड़ा। आम्रपाली नृत्य में तल्लीन हो गयी। वीणा तीन ग्रामों से आन्दोलित हो रही थी। एक के बाद एक क्षण नहीं, घटिकाएं बीतने लगीं। और अपने वीणावादन में बार-बार होने वाली तालबद्ध पदध्वनि से बिबिसार का ध्यानमग्न मन जाग उठा। उसने आंखें खोलीं। देखते ही वह चौंका। राजकन्या का नर्तन गजब ढा रहा था । उसके समस्त अंग अभिनव नर्तनकला को फूल की शय्या की तरह बिछा रहे थे । अद्भुत था नर्तन और अद्भुत था हावभाव।
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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