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________________ 414. मतिज्ञान के कितने प्रकार हैं? उ. मतिज्ञान के दो प्रकार हैं— श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित । 415. श्रुतनिश्रित मतिज्ञान किसे कहते हैं? उ. जो मति श्रुत से संस्कारित है, किन्तु वर्तमान व्यवहारकाल में श्रुत से निरपेक्ष है, वह श्रुतनिश्रित मति है। अथवा जिसकी मति शास्त्राभ्यास से परिष्कृत हो गई है उस व्यक्ति को ज्ञान की उत्पत्ति के समय शास्त्र की पर्यालोचना के बिना जो मतिज्ञान उत्पन्न होता है, वह श्रुतनिश्रित है। 416. श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के कितने प्रकार हैं? उ. श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार प्रकार हैं 1. अवग्रह — इन्द्रिय और अर्थ का योग होने पर जो अस्तित्व का बोध होता है, उसे अवग्रह कहते हैं। जैसे—यह कुछ है। 2. ईहा - "अमुक होना चाहिए" इस स्थिति तक पहुंचने का नाम ईहा है । जैसे—यह सर्प होना चाहिए । 3. अवाय - -"अमुक ही है" ऐसे निर्णयात्मक ज्ञान को अवाय कहते हैं। जैसे—यह सर्प ही है । 4. धारणा — निर्णयात्मक ज्ञान की अवस्थिति धारणा है। यह धारणा ही आगे चलकर स्मृति के रूप में परिणत हो जाती है। (इसके अतिरिक्त श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के 281 व 336 2 प्रकार भी हैं ।) 417. अवग्रह के कितने प्रकार हैं? उ. अवग्रह के दो प्रकार हैं— व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह। * व्यंजनावग्रह—इन्द्रिय और अर्थ का संयोग होने से वस्तु का जो अव्यक्त बोध होता है, वह व्यंजनावग्रह है। * अर्थावग्रह- - व्यंजनावग्रह की अपेक्षा कुछ व्यक्त (स्पष्ट ) बोध होना अर्थावग्रह है। 1. अट्ठाईस भेद — अवग्रह ( अर्थावग्रह ) ईहा, अवाय और धारणा के छह-छह (पांच इन्द्रियां और मन ) भेद हैं। व्यञ्जनावग्रह के (चक्षु और मन को छोड़कर) चार भेद हैं। इस प्रकार श्रुतनिश्रित मति के अट्ठाईस भेद होते हैं। 2. तीन सौ छत्तीस भेद — श्रुतनिश्रित मति के अवग्रह आदि अट्ठाईस भेदों को बहु-अबहु, बहुविध - अबहुविध, क्षिप्र और अक्षिप्र, अनिश्रित - निश्रित, निश्चित - अनिश्चित, ध्रुव - अध्रुव इन बारह भेदों से गुणन करने पर मतिज्ञान के 28×12 = 336 भेद होते हैं। 96 कर्म-दर्शन
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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