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________________ था। गलती पर कठोर से कठोर दंड दिया करता था। एक बार तुमने सब सैनिकों को आदेश दिया कि छावनी के निकट की नदी की रेत को वहीं एक जगह इकट्ठी करनी है। सभी सैनिक इस कार्य में जुटे। जितनी मिट्टी को ऊंची करनी थी, उसमें कुछ अन्तर रह गया। तुमने देखा-निर्धारित समय में मेरे कथनानुसार रेत इकट्ठी नहीं की गई। __ तू झुंझलाया और सबको फटकारा। सैनिकों का कहना था—हमने इतनी ऊंची रेत इकट्ठी करने का ही सुना था। तुमने दण्डस्वरूप सबका एक दिन का भोजन काट दिया। सब सैनिक बेचारे मजबूरी में भूखे रहे। सैनिक अनुशासन के कारण कुछ नहीं कर सके। सबके मन में आक्रोश था। फिर भी विवश थे, वहाँ तुम्हारे भोगान्तराय कर्म का बंध हुआ। दायित्व बुद्धि से किसी का कुछ करना अलग बात है, पर गुस्से में आकर किसी के खान-पान आदि भोगों का अवरोध करना अन्तराय कर्म बंध का हेतु है। चौथे युवक विश्वभद्र ने पूछा-गुरुदेव! मेरे में उत्साह की कमी क्यों है? किसी कार्य में आत्मशक्ति की अनुभूति नहीं होती, आत्महीनता की ही अनुभूति होती है। कृपा कर बताएं इसका कारण क्या है? आचार्यश्री–विश्वभद्र! तुम्हारे में बहुत शक्ति है। पिछले जन्म में तू मणिभद्र नाम का सेठ था। तुम्हारी नगरी तांबावती में एक बार मुनि समाधिसागर पधारे। उन्होंने तपस्या का अनुष्ठान एवं ज्ञान का उपक्रम किया। लोगों को प्रेरणा दी। तुममें यह क्षमता होते हुए भी अपनी कमजोरी प्रदर्शित की और तुमने लोगों से भी कहामेरी तरह कमजोरी दिखा दो, मजबूरी बता दो, जिससे छूट जाओगे इस झंझट से। नहीं तो फंस जाओगे। लोगों ने वैसा ही किया। स्वयं में ऐसा करने की क्षमता होते हुए भी अपनी कमजोरियां उजागर करने लगे। उन मुनिजी का अभियान विफल हो गया। अब मुनिजी क्या करें? उन सब लोगों को तुमने हतोत्साहित कर दिया तथा शक्ति होते हुए भी उसे छुपाया उससे वीर्य-अन्तराय कर्म का उपार्जन कर लिया। उन्हीं कर्मों को तू आज भोग रहा है। । कर्म-दर्शन 295
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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