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________________ महाराज श्रीकृष्ण को यों स्तवना करते पास वाले मकान में बैठे एक कंदोई ने देखा और सोचा—हो न हो ये पहुंचे हुए साधक हैं, जिनकी श्रीहरि जैसे सम्राट भी यों स्तवना करते हैं। मुझे इन्हें भोजन देना चाहिए। यों विचार कर भक्तिभाव से अपने घर ले गया। मुनि ने पूछा-तू, जानता है मैं किसका शिष्य हूँ? किसका पुत्र हूँ? कंदोई ने कहा—मुझे कुछ भी पता नहीं है। मैं तो केवल इतना ही जानता हूँ कि आप साधु हैं। मुनि ने अपनी लब्धि को ही जानकर भिक्षा ले ली। भिक्षा लेकर मुनि भगवान के पास आये। भगवान ने रहस्योद्घाटन करते हुए फरमाया- 'भद्र'! यह भिक्षा तुम्हारी लब्धि की नहीं, अपितु श्रीकृष्ण की लब्धि की है। अत: यह भिक्षा तेरे अभिग्रह के अनुसार तो तेरे लिए अग्राह्य है। ढंढ़णमुनि फिर भी समाधिस्थ रहे। प्रभु से पूछा-प्रभो! मैंने ऐसे कौनसे कर्मों का बंधन किया था, जिससे मेरे अन्तराय का उदय रहता है? भगवान् ने फरमाया"तू पूर्वजन्म में मगधदेश के पूर्वार्ध' नगर में पाराशर' नामक एक सुखी और सम्पन्न किसान था। खेत में छ: सौ हल चलते थे। एक बार ऐसा प्रसंग आया—छ: सौ हल खेत में चल रहे थे। भोजन के समय सबके लिए भोजन आया। परन्तु तू लालच में फंसकर थोड़ा और चलाओ, थोड़ा और चलाओ कहकर हल चलवाता रहा। बारह सौ बैल और छ: सौ हल चलाने वाले व्यक्ति भूख-प्यास से परेशान थे। तू उन सबके लिए अन्तरायदाता बना। उस कार्य से निकाचित कर्मों का बंध हुआ। वे यहाँ उदयावस्था में आये हैं, अतः तुम्हें आहार नहीं मिलता है।" अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनकर ढंढ़णमुनि और अधिक संवेग रस में तल्लीन हो उठे। उन लाये हुए मोदकों का व्युत्सर्ग करने प्रासुक भूमि में गये। एक-एक करके मोदकों को चूरने लगे। मोदकों के साथ-साथ भावना बल से अपने कर्मों का चूर्ण करके केवल ज्ञान प्राप्त किया और मोक्ष में जा पहुंचे। —त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व 8 : भरतेश्वरवृत्ति 290 कर्म-दर्शन
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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