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________________ 96. कर्म अदृष्ट है फिर उसे मूर्त कैसे माना जाता है ? उ. जिस प्रकार परमाणु सूक्ष्म है, अदृष्ट है लेकिन मूर्त है। तिल में तेल अदृष्ट है, फिर भी मूर्त है उसी प्रकार शरीर मूर्त होने से कर्म भी मूर्त है। 97. आत्मा अमूर्त है और कर्म मूर्त है फिर इन दो विरोधी वस्तुओं का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? उ. अमूर्त आत्मा मूर्त कर्म से नहीं बंधती बल्कि अनादिकाल से कर्मबद्ध मूर्त आत्मा से ही कर्म बंधते हैं। 98. आत्मा स्वतंत्र है या परतंत्र ? उ. कर्म ग्रहण करने में जीव स्वतंत्र है और उसका फल भोगने में परतंत्र । जैसे कोई वृक्ष पर चढ़ता है, वह चढ़ने में स्वतंत्र है, इच्छानुसार चढ़ता है। प्रमादवश गिर जाए तो वह गिरने में परतंत्र है। इच्छा से गिरना नहीं चाहता, फिर भी गिर जाता है इसलिए गिरने में परतंत्र है। इसी प्रकार विष खाने में वह स्वतंत्र है और उसका फल भोगने में परतंत्र । कर्मफल भोगने में जीव स्वतंत्र नहीं है, यह कथन आपेक्षिक है। कहीं-कहीं जीव उसमें स्वतंत्र भी होते हैं। जीव और कर्म का संघर्ष चलता रहता है। जीव के काल, पुरुषार्थ आदि लब्धियों की अनुकूलता होती है, तब वह कर्मों को पछाड़ देता है और कर्मों की बहुलता होती है, तब वह जीव उनसे दब जाता है। इसलिए यह माना जा सकता है कि कहीं जीव कर्म के अधीन है और कहीं कर्म जीव के अधीन । निकाचित कर्मोदय की अपेक्षा जीव कर्मों के अधीन ही होता है। दलिक की अपेक्षा जहाँ कर्मों को अन्यथा करने का कोई प्रयत्न नहीं होता वहाँ कर्मों के अधीन और जहाँ पुरुषार्थ आदि होते हैं वहाँ कर्म उसके अधीन होते हैं। 99. कर्म रूपी आत्मा अरूपी है। रूपी व अरूपी का संबंध कैसे संभव है ? उ. अनादिकाल से संसारी आत्मा कार्मण शरीर से निरन्तर सम्बन्धित है। इस दृष्टि से आत्मा को कथंचित् रूपी माना गया है। रूपी आत्मा के साथ रूपी कर्म पुद्गलों के चिपकने में कोई विसंगति नहीं है। 100. कर्मबंध के मुख्य हेतु क्या हैं? उ. आश्रव । 101. आश्रव किसे कहते हैं और उसके कितने प्रकार हैं? उ. जिन आत्म परिणामों से कर्मों का आगमन होता है, उसे आश्रव कहते 28 कर्म-दर्शन
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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