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________________ एक बार वार्षिक सम्मेलन सावत्थी नगरी में हुआ। सभी राज्यों के राजाराजकुमार आये। संयोगवश उन्हीं दिनों में वहाँ सर्वज्ञ अंगधर पधारे। राजा भद्रबाहु भी सभी राजाओं के साथ दर्शनार्थ पहुंचा, प्रवचन सुना । तदनंतर राजा ने पूछा—इस अवसर्पिणी काल में सर्वाधिक समय नरक में व्यतीत करने वाला व्यक्ति कौन है ? मैं उसकी कहानी कर्म-कहानी सुनना चाहता हूँ। सर्वज्ञ मुनि ने कहा — राजन्! अवसर्पिणी काल के नौ करोड़ाकरोड़ सागर में मात्र बीस हजार वर्ष शेष हैं। इतने कालमान में सर्वाधिक समय नरक में बिताने वाला जीव अभी महाविदेह क्षेत्र में वासुदेव शंभुवाहन के वहाँ कुलकीलिक नाम का बड़ा चाण्डाल है। सजा प्राप्त व्यक्तियों को फांसी पर लटकाना या अंगच्छेद करना उसका विशेष दायित्व है। इस बार भी उसका आयुष्य तीसरी नरक का बंधा हुआ है। उसकी सम्पूर्ण नरक कहानी सुनाना संभव नहीं है परन्तु जीव बार-बार नरक में क्यों जाता है, यह मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ। जब अवसर्पिणी का पहला आरा लगा, तब वह जम्मू द्वीप के पश्चिम महाविदेह में नरमंगल नामक राजा था। रानियों के साथ उपवन में क्रीड़ा के लिए गया। जाते समय उसकी दृष्टि उपवन में ध्यानस्थ खड़े मुनि पर पड़ी। देखते ही राजा को गुस्सा आया। रानियों द्वारा निषेध करने पर भी राजा ने अपनी म्यान से तलवार निकाली और मुनि के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उस अकृत्य के कारण सातवीं नरक का आयुष्य बंध गया। छः महीनों के अन्दर मरकर सातवीं नरक में गया। सातवीं नरक से तैंतीस सागर का आयुष्य भोगकर पद्मला झील में विशालकाय मच्छ बना। एक बार दूसरे मच्छ ने इसके पास रहने वाली मछली को घेर लिया। यह देखते ही वह क्षुब्ध हो गया। उस झील में जितने भी नर मच्छ थे उन सबको मौत के घाट उतार दिया। अल्प समय में ही मृत मच्छों में सड़ांध पैदा हो गई। झील का पानी विषयुक्त हो गया। वह स्वयं तड़प-तड़प कर मर गया । मरकर पुनः सातवीं नरक में चला गया। इस प्रकार एक-एक नरक में कई बार चला गया। वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर लम्बे समय तक तिर्यंच गति में भटका, फिर मनुष्य बना, महाविदेह क्षेत्र में पुरोहित पुत्र बना, किन्तु कुसंगति से दुर्व्यसनी हो गया । पारिवारिक जनों ने उसे घर से निष्कासित कर दिया। वहाँ से निकलकर डाकुओं के गिरोह में मिलकर कुछ समय बाद ही डाकुओं का सरदार बन गया । सरदार बनते ही अपने शहर पर डाका डाला। परिवार को लूटा ही नहीं, एक-एक को चुन-चुन कर मारा। अपने बूढ़े माँ-बाप को चौराहे पर भाले की नोक में पिरोकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये। हजारों व्यक्तियों की हत्या कर दी। वापस लौटते समय मुठभेड़ हो गई। मुठभेड़ में वह मारा गया। वहाँ से मरकर छठी नरक में गया। कर्म-दर्शन 275
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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