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________________ __एक बार सर्वांगसुन्दरी साकेत नगर से गजपुर आई। अशोकदत्त श्रेष्ठी भी वहाँ आया हुआ था। उसने सर्वांगसुन्दरी को देखा और पूछा—यह किसकी कन्या है? उसे बताया गया कि यह शंख श्रेष्ठी की कन्या है। उसने शंख से अपने पुत्र समुद्रदत्त के लिए ससम्मान उसकी याचना की। शंख की स्वीकृति पर विवाह सम्पन्न हो गया। कुछ समय पश्चात् समुद्रदत्त उसे लेने आया। ससुराल वालों ने उसका स्वागत किया। वासगृह सजाया गया। उसी समय सर्वांगसुन्दरी के माया के कारण बंधा हुआ कर्म उदय में आ गया। समुद्रदत्त वासगृह में बैठा था। उसने जाती हुई दैविकी पुरुषछाया को देखा और सोचा- 'मेरी पत्नी दुःशीला है क्योंकि कोई उसको देखकर अभी-अभी गया है।' इतने में ही सर्वांगसुन्दरी वासगृह में आई। पति ने उसके साथ आलाप संलाप नहीं किया। अत्यन्त दु:खी होकर उसने धरती पर उदास बैठकर रात बिताई। प्रभात होने पर उसका पति अपने स्वजनवर्ग से बिना पूछे केवल एक ब्राह्मण को बताकर साकेत नगर चला गया। उसने कौशलपुर के श्रेष्ठी नंदन की पुत्री श्रीमती, वे और उसके भाई ने नंदन की दूसरी पुत्री कांतिमती के साथ विवाह कर लिया। सर्वांगसुन्दरी ने जब इस विवाह की बात सुनी तो वह अत्यन्त खिन्न हो गई। अब उसके और पति समुद्रदत्त के बीच व्यवहार समाप्त हो गया। सर्वांगसुन्दरी धर्मध्यान में तत्पर रहने लगी और कालान्तर में प्रव्रजित हो गयी। एक बार अपनी प्रवर्तिनी के साथ विहरण करती हुई वह साकेत नगर में आई। उस समय सर्वांगसुन्दरी के माया द्वारा बंधा हुआ दूसरा कर्म उदय में आया। वह पारणक करने के लिए नगर में भिक्षाचर्या के लिए श्रीमती के घर गई। उस समय वह शयनगृह में हार पिरो रही थी। साध्वी को देखकर हार को वहीं रखकर वह भिक्षा देने उठी। इतने में ही चित्र में चित्रित एक मयूर उतरा और हार को निगल गया। साध्वी ने सोचा—यह कैसा आश्चर्य? भिक्षा लेकर साध्वी गई। श्रीमती ने देखा कि हार यहीं है। उसने सोचा, यह कैसी गजब की क्रीड़ा। परिजनों के पूछने पर वे बोले—'यहाँ केवल आर्या के अतिरिक्त कोई नहीं आया।' श्रीमती ने साध्वी का तिरस्कार किया और घर से निकाल दिया। साध्वी ने अपने उपाश्रय में जाकर प्रवर्तिनी से मयूर वाली आश्चर्यकारी बात कही। प्रवर्तिनी बोली-'कर्मों का परिणाम विचित्र होता है।' वह साध्वी उग्र तप करने लगी। अनर्थ से भयभीत होकर उसने श्रीमती के घर जाना छोड़ दिया। श्रीमती और कांतिमती के पति अपनी पत्नियों का उपहास करने लगे परन्तु दोनों विपरिणत नहीं हुई। उग्र तप करने वाली सर्वांगसुन्दरी के कुछ कर्म शिथिल हुए। __एक बार श्रीमती अपने पति के साथ वासगृह में बैठी थी। उस समय चित्र से नीचे उतरकर मयूर ने हार को उगल दिया। यह देखकर दोनों में विरक्ति पैदा हुई। उन्होंने सोचा-'ओह! साध्वी की कितनी गंभीरता है कि उसने कुछ नहीं बताया।' कर्मदर्शन 269
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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