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________________ दुःख-दर्द की उसे तनिक भी चिन्ता नहीं थी। उसे चिंता रहती थी अपनी तिजोरियां भरने की। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। पर सुनने वाला कौन था? वह तो स्वच्छन्द बना अत्याचार करने को तैयार रहता। परन्तु पाप किसी का बाप नहीं होता। संयोग की बात, उसके शरीर में सोलह प्रकार के महाभयंकर रोग एक साथ ही पैदा हो गये। अनेक रोगों से एक साथ घिर जाने से इकाई बहुत पीड़ित-व्यथित हुआ तथा अपने आपको दीन-हीन मानने लगा। चिकित्सकों को विविध प्रकार के प्रलोभन देकर चिकित्सा करने के लिए कहा। उन्होंने भी जी-जान लगाकर प्रयत्न किया। परन्तु सफलता पल्ले नहीं पड़ी। अन्ततः महावेदना भोगता हुआ मरकर प्रथम नरक में गया। प्रथम नरक से निकल कर वह इकाई राठोर का जीव मृगा ग्राम में विजय क्षत्रिय की रानी मृगावती के उदर में आया। जिस दिन यह जीव मृगावती के गर्भ में आया, उसी दिन से मृगावती के प्रति विजय क्षत्रिय का प्रेम कम हो गया। मृगावती ने यह सारा गर्भ का प्रभाव माना। सोचा-हो न हो कोई पापात्मा मेरे गर्भ में आयी है। गर्भ के योग से उसे पीडा भी अधिक रहने लगी। रानी के गर्भ को गिराने, नष्ट करने के लिए अनेक औषधोपचार किये। पर पापी ऐसे नष्ट थोड़े ही होते हैं। रानी उदासीन बनी गर्भ का पालन करने लगी। गर्भावस्था में ही शिशु को भस्मक रोग हो गया। वह जो भी खाता वह उसके तत्काल रक्त हो जाता। नौ महीने में पुत्र जन्मा। नाम मृगापुत्र दिया। परन्तु था जन्म से ही अंधा, बहरा, गूंगा तथा अंगोपांग के आकार से रहित। इन्द्रियों के मात्र चिह्न ही थे। ऐसे भयानक बालक को देखकर रानी भयभीत हो उठी। कूरड़ी पर उसे गिरवाने का विचार कर लिया। पर जैसे-तैसे रानी के मनोभावों का राजा को पता लग गया। राजा ने रानी से कहा-देख, ऐसा काम नहीं करना चाहिए। यह पहला बालक है। इसे मारने से अन्य बालक भी जीवित नहीं रहेंगे। इसलिए इसका पालन-पोषण कर। पति की आज्ञा मानकर रानी उस बालक को एक भौंयरे (तलघर) में डाले रखती। प्रतिदिन उसे वहाँ भोजन दे देती। बालक जो भी भोजन करता उसके दुर्गन्धमय पदार्थ ही बनते थे। नरक के समान भयंकर वेदना भोगता हुआ वह वहाँ रह रहा था। एक बार भगवान् महावीर उसी मृगा गांव के चन्दन पादप नामक उद्यान में पधारे। विजय राजा भी दर्शनार्थ आया। उसी गांव का एक जन्मान्ध भिखारी, जिसके ऊपर हजारों मक्खियां भिनभिना रही थीं, वह अपने किसी सज्जन साथी के सहारे 15353 54 कर्म-दर्शन 255
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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