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________________ (11) स्वाध्याय में काल और अकाल का विवेक एक मुनि कालिक श्रुत का स्वाध्याय कर रहा था। रात्रि का पहला प्रहर बीत गया, उसे इसका भान नहीं रहा। वह स्वाध्याय करता ही रहा। एक सम्यक् दृष्टि देवता ने यह जाना। उसने सोचा-यह मुनि अकाल में स्वाध्याय कर रहा है। कोई नीच जाति का देवता इसको ठग न ले, इसलिए उसने छाछ बेचने का स्वांग रचा। छाछ लो, छाछ लो।' यह कहता हुआ वह उस मार्ग से निकला। वह बार-बार उस मुनि के उपाश्रय के पास आता जाता रहा। मुनि ने 'मन ही मन' वह छाछ बेचने वाला मेरे स्वाध्याय में बाधा डाल रहा है। यह सोचकर उसने कहा-अरे! अज्ञानी! क्या यह छाछ बेचने का समय है? समय की ओर ध्यान दो। तब उसने कहा-मुनि प्रवर ! क्या यह कालिक श्रुत का स्वाध्याय काल है? मुनि ने यह बात सुनी और सोचा-यह कालिक श्रुत का स्वाध्याय काल नहीं है। आधी रात बीत चुकी है। मुनि ने प्रायश्चित्त स्वरूप 'मिच्छा मि दुक्कडं' का उच्चारण किया। देवता बोला, फिर ऐसा मत करना। अन्यथा तुच्छ देवता से ठगे जाओगे। अच्छा है स्वाध्याय काल में ही स्वाध्याय करो, न कि अस्वाध्याय काल में। —आवश्यक नियुक्ति-118 (12) विभंग ज्ञान शिव राजर्षि हस्तिनापुर नगर में शिव नामक राजा था। उसकी पत्नि का नाम धारिणी तथा पुत्र का नाम शिवभद्र था। राज्य की धुरा वहन करते हुए शिवराजा के मन में एक संकल्प उभरा-'मेरे पूर्वजन्म के सुचीर्ण कर्मों का फल है, जिसके कारण मेरे भण्डार में सोना, चांदी तथा धनधान्य आदि बढ़ रहे हैं इसलिए अब मुझे पुनः पुण्यकर्म करना चाहिए। ऐसा सोचकर उसने दूसरे दिन विपुल भोजन बनवाया। लोगों को भोजन करवा कर दान दिया और अत्यधिक समृद्धि व उत्सव के साथ शिवभद्र का राज्याभिषेक किया। फिर ताम्रमय तापस भाण्डों को बनवाकर उन्हें लेकर दिशात्प्रोक्षित तापस बन गया। यावज्जीवन बेले-बेले की तपस्या में दोनों हाथ ऊपर उठाकर सूर्य की आतापना लेते हुए वह विहरण करने लगा। वह प्रथम बेले के पारणे के दिन 240 कर्म-दर्शन 240 कर्म-दर्शन 000000RREE
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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